तो क्या डंडों से सफाया होगा आतंकवाद का?


हद है... सीआरपीएफ के जवानों को कश्मीर पुलिस द्वारा घाटी में बिना हथियारों के लड़ने पर मजबूर किया जा रहा है। मतलब आधुनिक हथियारों से लैस आतंकवादियों से लड़ने के लिए लकड़ी का डंडा??? इससे वह खुद की सुरक्षा करेंगे या आम जनता की?


 
इससे अच्छा तो यह है कि सीआरपीएफ की ज़िम्मेदारी कश्मीर पुलिस को ही दे दो, खुद ही भिड़ें आतंकवादियों से और वह भी लकड़ी डंडों के साथ!

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ईनाम की इच्छा







स्वर्ग तो अच्छे कर्म करने वालों के लिए रब की तरफ से ईनाम है और ईनाम की लालसा में अच्छे कर्म करने वाला श्रेष्ठ कैसे हुआ भला? हालाँकि फायदे या नुक्सान की सम्भावना आमतौर पर मनुष्य को कार्य करने के लिए  प्रोत्साहित अथवा हतोत्साहित करती ही हैं।






लेकिन मेरी नज़र में तो बुरे कर्म से अपने रब की नाराजगी का डर और अच्छे कर्म से अपने रब के प्यार की ख़ुशी ही सब कुछ है।



मैं अपने पैदा करने वाले और मेरे लिए यह दुनिया-जहान की अरबों-खरबों चीज़ें बनाने वाले का शुक्रगुज़ार ही नहीं बल्कि आशिक़ हूँ, फिर जिससे इश्क होता है उसकी रज़ा में लुत्फ़ और नाराज़गी ही से दुःख होना स्वाभाविक ही है।





और मेरे नज़दीक आशिक के लिए माशूक़ से मिलने से बड़ा कोई और ईनाम क्या हो सकता है?

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ज़ालिम का विरोध और मजलूम का समर्थन


अगर परिवर्तन चाहते है तो गलत को गलत कहने का साहस जुटाना ही पड़ेगा, ज़ालिम का विरोध और मजलूम का समर्थन हर हाल में करना पड़ेगा। 

और ऐसा तभी संभव है जबकि तेरा-मेरा छोड़कर इंसानियत के खिलाफ उठने वाले हर कदम का विरोध हो। जैसा कि अजमेर शरीफ दरगाह की कमिटी ने हमारे सेनिकों की बेहुरमती के विरोध में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की यात्रा का बहिष्कार करने का फैसला किया।

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यह तेरा घर, यह मेरा घर?

आखिर यह रीत किसने बनाई कि पत्नी ही शादी के बाद अपना घर छोड़ कर ससुराल जाए, इक्का-दुक्का जगह पति भी जाते हैं पत्नी के घर। मगर यह रीत क्यों? पति-पत्नी मिलकर घर क्यों नहीं बनाते हैं?

जहाँ उन दोनों को और उन दोनों के परिवार वालों को एक सा सम्मान, एक सा प्यार और एक से अधिकार मिले।

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नफरत की सौदागरी


उफ्फ! चारो तरफ नफरत... धमाकों पर धमाकें, देख लो नफरत की सौदागरी का नतीजा! सड़कों पर फैलता गर्म खून, चारो और बिखरे हुए गोश्त के लोथड़े, खुनी रंग से सरोबार होते धार्मिक स्थल, खौफ से सजते बाज़ार, दर्द से चिल्लाते मासूम, अपनों को गंवाने के गम में सिसकती आहें... और क्या-क्या साज़-ओ-सामान चाहिए अय्याशी के लिए इन शैतानो को? और कितनी बलि चाहिए इन्हें अपने देवता को खुश करने के लिए।

जब तक लोगों में ज़हर घोल जाता रहेगा, तब तक इंसानियत शर्मसार होती रहेगी। इस तरह की सोच का फल देखने के बाद भी इन जैसों का समर्थन करने वालों की ऑंखें ना खुलें और अपनी सोच पर विचार ना करें तो फिर बर्बादी से कौन बचा सकता है?

आज हर तरफ नफरतों के गीत गाए जा रहे हैं, नफरत फैलाने वालों की तारीफों में खुले-आम कसीदे पढ़े जा रहे हैं। उन्हें और ताकतवर बनाए जाने की कोशिश की जा रही है। शायद शैतानो की तारीफ करने वाले लोगो के लिए भी दूसरों की लाशें सुकून देने वाली ही हैं! उन्हें संतोष हैं कि हमने तो बस लाशों के बदले लाशें बिछाई हैं और गर्व है कि गालियों का बदला लिया है। फिर भूल जाते हैं कि दूसरे भी बस बदला ही तो लेना चाहते हैं। और इस अदला-बदली में इंसानियत ख़त्म होती जा रही है।

पता नहीं यह मौत के बाज़ार कब तक सजेंगे? बदलों का यह दौर कब तक चलेगा?





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