धौखा है हज सब्सिडी

हज सब्सिडी के नाम पर मुसलमानो को धोखा दिया जा रहा है। हमारे देश से हज यात्रा के लिए डेढ़ लाख से अधिक लोग हर वर्ष साउदी अरब की यात्रा पर जाते हैं। जिसमें से सवा लाख लोग हज कमेटी से तथा बाकी अलग-अलग प्राइवेट टूर्स ऑपरेटर्स के ज़रिये जाते हैं।

हमारे देश की सरकार इस यात्रा पर किराए में सब्सिडी देने की बात करती है, जो कि पूरी तरह धौखा है। हज के लिए जेद्दाह जाने का जो किराया आम दिनों में 16-17 हज़ार होता है, इंडियन एयर लाइन्स के द्वारा सरकार वही किराया हज के दिनों के करीब आते-आते कई गुना बढ़ा देती है। पिछले वर्ष यह किराया तकरीबन 52 हज़ार था, इस साल यह करीब 55 हज़ार तक पहुँचने की उम्मीद है।

आम दिनों में पवित्र शहर मक्का में "उमरा" के लिए 20 दिन की यात्रा का खर्च तकरीबन 33-35 हज़ार रूपये ही आता है लेकिन हज के दिनों में यही खर्च बढ़कर दुगने से भी अधिक हो जाता है। हज यात्रा आम तौर पर 40 दिन तक चलती है और इसमें खर्च सवा लाख रूपये के आस-पास होता है। ऐसा केवल इसलिए है क्योंकि हज पर जाने के लिए केवल एयर इंडिया तथा सउदी एयरवेज़ को ही इजाज़त है। सरकार सउदी अरब सरकार के साथ मिलकर यह गोरखधंधा चला रही है, इसी मोनोपोली का फायदा उठाकर हर साल किराया इतना बढ़ा दिया जाता है जिससे कि मुसलमानों को सब्सिडी के नाम पर ठगा जा सके।

यह खुली लूट नहीं है तो और क्या है? अगर डेढ़-दो लाख लोग एक साथ मिलकर किसी भी एयर लाइन्स से टिकट लें तो क्या वहां किराए में छूट नहीं मिलेगी? लेकिन सरकार द्वारा नियुक्त हज कमिटी इस मसले पर चुप है, आखिर क्यों? उन्हें साफ़ करना चाहिए कि वह हाजियों की नुमाइंदगी करती हैं या सरकार की।

इस कदम से सरकार की नियत का अंदाजा लग जाता है, कि वह केवल मुसलमानों की मदद करने का ढोंग करती है, अगर सरकार वाकई मुसलमानों का की मदद करना चाहती तो इस गलत रास्ते को क्यों चुनती है?

जिस छूट पर हज यात्रियों का हक़ है, सरकार उसी हक को सब्सिडी नामक भीख के तौर पर देती है। कम से कम हज यात्रियों का पैसा ही उन्हें छूट नामक झूट के नाम से देती तो भी चलता लेकिन सब्सिडी के नाम से तो यह सरकार की खुली लूट है।

आज ज़रूरत है कि यह आवाज़ उठाई जाए कि या तो हमारा हक दो नहीं तो कम से कम इस सब्सिडी नाम की भीख को समाप्त करो। वैसे भी हज जैसी पवित्र यात्रा के किराए पर सरकार की (झूठी) मदद जायज़ ही नहीं है, हज के लिए जाने वाले जहाँ डेढ़-दो लाख रूपये प्रति व्यक्ति खर्च करते हैं, क्या वह थोडा और पैसा खर्च नहीं कर सकते हैं?



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ग़ज़ल: "अँधेरी रात है खुद का भी साया साथ नहीं"


अँधेरी रात है खुद का भी साया साथ नहीं
कोई अपना ना हो, ऐसी भी कोई बात नहीं

साथ है जो, वोह ज़रूरी तो नहीं साथ ही हो
बात ऐसी भी नहीं, मिलते हो जज़्बात नहीं

कैफियत रात की कुछ ऐसी हुई जाती है
पास लेटा है जो, उससे ही मुलाक़ात नहीं

रिश्ता नयनों का हुआ बारिशों के साथ ऐसा
बादलों को ही यह पहचानती बरसात नहीं

टूटकर चाहा मगर चाहने का हासिल क्या
उसकी नज़रों में जो यह चाहतें सौगात नहीं

अपनी हस्ती को फ़ना कर दिया जिसकी धुन में
उसकी नज़रों में लड़कपन है यह सादात* नहीं

- शाहनवाज़ सिद्दीक़ी 'साहिल'

*सदात = बुज़ुर्गी, गंभीरता



यह ग़ज़ल मैंने अपने ट्विटर अकाउंट पर लिखी थी...




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