दीपावली का आया है त्यौहार शब-ओ-रोज़


दीपों के त्यौहार दीपावली पर हमारा पूरा शहर कई दिन पहले से फिजा में खुशियों के रंग बिखेरने शुरू कर देता है, हफ़्तों पहले से शहर की रातें जगमगाना शुरू कर देती हैं और खुशियों का माहौल दीपावली के कई दिन बाद तक चलता रहता है, खुदा से दुआ है कि मेरे मुल्क में इसी तरह खुशियाँ और भाई चारा फलता फूलता रहे... अमीन!

इसी दुआ के साथ आप सभी को दीपवाली की हार्दिक शुभकामनाएँ!


अमनों-ख़ुशी का छाया है ख़ुमार शब-ओ-रोज
दीपावली का आया है त्यौहार शब-ओ-रोज़ 

कंदीलों की झुमकियाँ भी झूमती है बार-बार
हर एक शय पे आया है निखार शब-ओ-रोज़

हर कूचा-ए-गली में रौनकों की है बहार
हर दिल को आज आया है करार शब-ओ-रोज़

मस्ती की रवानी है शब-ओ-रोज़ मुल्क में
खुशियों का ऐसे आया है बुखार शब-ओ-रोज

- शाहनवाज़ 'साहिल'





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'बेतुकी' नहीं है गरीबी की प्रस्तावित परिभाषा

काफी दिनों से हो हल्ला मच रहा है कि योजना आयोग (Planning Commission) ने गरीबों के लिए नई परिभाषा का प्रस्ताव दिया  है.  जिसमें शहर में 32  रूपये प्रतिदिन तथा गाँव में 26 रूपये प्रतिदिन कमाने वालों को गरीब नहीं माना जाएगा, जिसको लेकर योजना आयोग के डिप्टी चैरमैन   श्री अहलूवालिया की काफी निंदा भी की जा रही है.

मैंने जब उस शपथ पत्र को पढ़ा तो पाया कि उसमें "4824 रुपये मासिक व्यय करने वाले पांच सदस्यीय परिवार" को गरीबी रेखा से नीचे नहीं रखने का प्रस्ताव है. जबकि कुछ लोग "32 रूपये प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति आय"  की बात करके जान बूझकर लोगों को गुमराह कर रहे हैं. हमारे देश में सामान्यत: परिवार में मुखिया ही कमाता है, इसलिए इससे यह सन्देश गया कि शपथ पत्र में एक परिवार के लिए 32  रूपये प्रति दिन आय की धारणा ली गई है. जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है, अगर प्रति दिन का हिसाब भी लगाया जाए तो यह एक पांच सदस्यीय परिवार के लिए 161 रूपये प्रति दिन है, और यहाँ खर्च की बात की जा रही है, आय की नहीं.
यहाँ यह जान लेना भी आवश्यक है कि हर सरकार समय-समय पर गरीबी रेखा से नीचे रहने वालो का निर्धारण करती है, जिससे कि सही लोगो तक सब्सिडी पहुंचाई जा सके.  हालांकि 4824 रुपये मासिक व्यय की गरीबी की परिभाषा को कहीं से भी संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है, लेकिन देश की आर्थिक स्थिति को देखते हुए इसे बेतुका भी नहीं कहा जा सकता है.


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जामा मस्जिद का इमाम कोई बुखारी ही क्यों?

आखिर जामा मस्जिद में इमाम की नियुक्ति में परिवारवाद क्यों चलता आ रहा है? जबकि यह इस्लाम का तरीका भी नहीं है.

किसी भी मस्जिद के इमाम को नियुक्त करने की ज़िम्मेदारी वहां की कमेटी की होती है, इस्लाम में मस्जिद की इमामत तो क्या मुल्क की देखभाल करने (जिसे आप राज करना भी कह सकते हैं) जैसे महत्वपूर्ण कामों में भी पारिवारिक दखल की कोई गुंजाइश नहीं होती, बल्कि यह निर्णय काबिलियत के एतबार से होता है. फिर आखिर कोई बुखारी परिवार का सदस्य ही क्यों जामा मस्जिद की इमामत संभालता हैं? हैरत की बात है की कहीं कोई विरोध भी नहीं है?

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बेचारे ड्राइवर रहते हैं चौबीस घंटे बस में :-)


एक यात्री ने उत्सुक्तावश  ड्राइवर से मालूम किया: 

ड्राइवर साहब आप बस में कितने घंटे रहते हैं?




ड्राइवर भी हाज़िर जवाब था, फट से यात्री से बोला: 

चौबीस घंटे।



यात्री ने हैरानगी दिखाते हुए मालूम किया:

यह कैसे संभव है?



ड्राइवर फट से बोला:

मित्र, आठ घंटे सरकार की बस में और सौलह घंटे पत्नी के बस में!

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