अलविदा प्यारी बहन तब्बू, बहुत याद आओगी...

पिछले कुछ दिनों से व्यस्तता बहुत ज्यादा बढ़ी हुई थी, दीपावली के चलते दफ्तर में काम बहुत अधिक था, ऊपर से एम.बी.ए. की परीक्षा चल रही थी। इधर हमारीवाणी के अपने सर्वर पर स्थानांतरण के कारण वहां पर भी टेक्नीकल काम करने थे। लेकिन ना केवल मुझे बल्कि पूरे घर को चिंता थी मेरी छोटी मामाज़ाद बहन 'इरम' की शादी की तैयारियों की, जो कि 20 नवम्बर को तय हुई थी। सारा घर खुशियों से भरा हुआ था और तैयारियों में व्यस्त था, लेकिन मेरी परेशानी यह थी कि उससे केवल दो दिन पहले मेरा एम.बी.ए. का इम्तहान था।

बात 8 नवम्बर की है, शाम को दफ्तर से आते ही मैं पढने की तैयारियों में जुट रहा था, तभी खबर मिली की मेरी प्यारी लाडली बहन 'तबस्सुम' अचानक इस दुनिया से चली गयी। 3 महीने पहले पीलिया हुआ था, ईद से अगले दिन अचानक तबियत खराब हुई, गाँव में चिकित्सा सुविधाओं के अभाव के कारण शहर ले जाया गया, लेकिन उसकी सांसे रास्ते में ही जवाब दे गयी। उस वक़्त का मंज़र बयान करना नामुमकिन है। 'तबस्सुम' 'इरम' से छोटी थी और मामा साहब की जान थी। वह तबस्सुम को अपना बेटा कहते थे। भाई-बहनों की पढाई से लेकर घर तथा खेती का हिसाब-किताब तक वही संभालती थी।

बड़ी बहन 'इरम' की शादी की सारी की सारी तैयारी तबस्सुम ने खुद ही की थी। हर एक छोटी से छोटी चीज़ वोह खुद ही बड़ी हसरतों से खरीदकर लाई थी और खुद बड़ी बहन की विदाई से पहले ही विदा हो गयी। कहाँ घर में बड़ी बहन के ससुराल जाने की तैयारी चल रही थी और कहाँ हमें उसके 10-12 दिन पहले ही छोटी को विदा करना पड़ा और वह भी हमेशा के लिए...! 

शादी की सारी तैयारी पूरी हो चुकी थी, सारे कार्ड बांटे जा चुके थे,  इसलिए तय किया गया कि 'शादी को तय समय के अनुसार ही किया जाए, जो कि 20 तारिख को अल्हम्दुलिल्लाह मुक़म्मल हो गयी।

तबस्सुम और इरम दोनों ही का बचपन हमारे घर में गुज़रा है इसलिए खासतौर पर इन दोनों से ही जुड़ाव बहुत अधिक रहा, तबस्सुम को मैं प्यार से 'तब्बू' कहा करता था। तब्बू पढने लिखने में बहुत तेज़ थी, बिजनौर से एल.एल.बी की पढाई कर रही थी और बड़ी होकर मजिस्ट्रेट बनना चाहती थी। उसको चित्रकारी के साथ-साथ ना'त, हमद, नज़्म इत्यादि पढने का बहुत शौक था। नीचे उसी की कुछ दिन पहले ही पढ़ी हुई एक नज़्म का लिंक दे रहा हूँ, इस नज़्म को पढ़ते समय जब तब्बू 'जब मेरी रूह निकलेगी, रोएंगे घर वाले' पर पहुंची तो उसका गला भर आया था, जैसे उसे जल्द आने वाले इस मंज़र का इल्म हो गया हो...!!! 

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जानवरों की कुर्बानी क्या है?

जैसा कि मैं पहले भी अपनी पोस्ट में बता चूका हूँ कि इस्लाम के अनुसार अन्य जानवरों के साथ-साथ पेड़-पौधों में भी जीवन होता है , चाहे जानवर हो या पेड़-पौधे, दोनों को ही दुःख का अहसास होता है, यह अलग बात है की वह अपने दुःख का प्रदर्शन करने में असमर्थ हैं। अन्य जानवरों की ही तरह पेड़-पौधों का साँस लेना, खाना-पीना,  प्रकृति को आगे बढाने के लिए अंडे देना बिलकुल अन्य जीवों की ही तरह होता है और यह केवल इस्लाम ही नहीं बल्कि हिन्दू धर्म तथा विज्ञान का भी मत है। लेकिन हर एक जीव को जीवित रहने के लिए दूसरे को भोजन बनाना प्रकृति का नियम है। ठीक इसी तरह मरने के बाद दफ़नाने के विधि में शरीर ज़मीन के अन्दर रहने वाले दूसरे जीवों के भोजन के काम में आता है।

अगर बात कुर्बानी की करें तो इसमें एक बात तो यह है कि मुसलमान कुर्बानी केवल ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) पर ही नहीं बल्कि आम जीवन में अक्सर करते रहते हैं। जो कि कई तरह की होती है जैसे इमदाद के लिए जानवर की कुर्बानी, सदके के लिए कुर्बानी और ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) पर कुर्बानी इत्यादि।
  • इसमें से इमदाद अर्थात मदद करने की नियत से की गई कुर्बानी के द्वारा अपने घर वालों, रिश्तेदारों, पडौसियों और अन्य गरीबों के लिए भोजन की व्यवस्था की जाती है और इस तरह के भोजन को केवल घरवालो को ही नहीं खिलाया जाता बल्कि गरीब रिश्तेदारों, पडौसियों और अन्य गरीबों को भी भोजन कराया जाता है।
  • दूसरी तरह की कुर्बानी अर्थात सदके के लिए की गई कुर्बानी से बनने वाले भोजन को केवल और केवल गरीब लोगों को खिलाया जाता है, इसमें घरवालों का हिस्सा नहीं होता।
  •  तथा तीसरी तरह की कुर्बानी अर्थात ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) वाली कुर्बानी के लिए अच्छा तरीका यही है कि मांस अथवा पके हुए भोजन के तीन हिस्से किये जाए और उसमें से एक हिस्सा अपने घर वालों के लिए, दूसरा हिस्सा गरीब रिश्तेदारों के लिए तथा तीसरा हिस्सा अन्य गरीब लोगों के लिए निकाला जाए। हालाँकि इसमें कोई ज़बरदस्ती नहीं है, बल्कि जिसकी जैसी आस्था है वह उस हिसाब से भी बंटवारा कर सकता है।

कुर्बानी क्या है?
इसमें बहुत सी अन्य दलीलों के अलावा एक बात यह भी है कि इन तीनो ही तरीकों में कोई भी मर्द / औरत चाहता / चाहती तो उसके द्वारा अपने जानवर अथवा पैसे को खुद अपने काम में प्रयोग किया जा सकता था। लेकिन उसने अपने अन्दर के लालच को कुर्बान करके अपने घरवालो, गरीब रिश्तेदारों तथा अन्य गरीबों को लिए भोजन की व्यवस्था की।

अगर बात कुर्बानी के तरीके की जाए तो यह जान लेना आवश्यक है कि मुसलमान हर एक धार्मिक कार्य पैगम्बर मुहम्मद (स.) के तरीके पर करते है, जिसे कि सुन्नत अथवा सुन्नाह कहा जाता है। सुन्नत के अनुसार ऊपर के दोनों तरीकों में भोजन के लिए मांसाहार अथवा शाकाहार दोनों में से किसी भी तरीके को अपनाया जा सकता है, लेकिन ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) के मौके पर केवल कुछ जानवरों को ही भोजन के तौर पर प्रयोग करने की इजाज़त है और वह भी कुछ शर्तों के साथ।

साथ ही यह बात भी जान लेना आवश्यक है कि इस्लाम में जानवरों और पेड़-पौधों पर खासतौर पर रहम और मुहब्बत का हुक्म है और भोजन जैसी आवश्यकता को छोड़कर उनका वध करना वर्जित है। यहाँ तक कि इसको बहुत बड़ा गुनाह और नरक में पहुंचाने वाला बताया गया है। बल्कि पेड़ों को पानी डालना तथा प्यासे जानवर को पानी पिलाने जैसे कामों के बदले में बड़े-बड़े गुनाहों को माफ़ करने जैसे ईनाम है।

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ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) पर ऐतराज़

ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) का मौका आते ही मांसाहार के खिलाफ विवादित लेख लिखे जाने शुरू हो जाते हैं और ऐसा साल-दर-साल चलता आ रहा है। हालाँकि बात अगर तार्किक लिखी गयी हो तो किसी भी तरह के लेख से किसी को भी परेशानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि हर किसी को शाकाहारी अथवा मांसाहारी होने का हक है और इसी तरह अपने-अपने तर्क रखने का भी हक है। लेकिन किसी भी सभ्य समाज में इसकी आड़ में किसी धर्म को निशाना बनाए जाने का हक किसी को भी नहीं होना चाहिए। जब मैं नया-नया हिंदी ब्लॉग जगत में आया था, तब किसी ना किसी विषय हिन्दू-मुस्लिम वाक्-युद्ध आम बात थी, जिसके कारण दिन-प्रति दिन कडुवाहट बढती जा रही थी। लेकिन कुछ अमन पसंद ब्लॉगर्स के प्रयास से धीरे-धीरे लोग दोनों तरफ से लिखे जाने वाले विवादित लेखों से दूर हटने लगे। हालाँकि इस बीच लगातार इस तरह के लेख लिखकर आग भड़काने की कोशिश की जाती रही। बकराईद के विरोध में लिखे लेखों को भी मैं इसी कड़ी में देखता हूँ।

हर एक धर्म को मानने वाला अलग-अलग परिवेश में बड़ा होता है, उनके खान-पान, रहन-सहन, धार्मिक विश्वास में भिन्नता होती है, लेकिन हम अक्सर दूसरे धर्म की बातों को अपनी मान्यताओं  और अपनी सोच के पैमाने पर तोलते हैं। और किसी भी बात को गलत पैमाने से जांचे जाने की सोच के साथ हर एक धर्म की हर एक बात पर ऊँगली उठाई जा सकती है और अगर ऐसा होने लगा तो यह समाज के लिए बहुत ही दुखद स्थिति होगी।

जहाँ तक बात ईद-उल-ज़ुहा अर्थात बकराईद पर ऐतराज़ की है, तो सभी तरह के एतराज़ का जवाब पहले ही दिया जा चूका है। ईद-उल-ज़ुहा कुर्बानी का त्यौहार है, क्योंकि मांस अक्सर मुसलमानों के द्वारा भोजन के तौर पर प्रयोग किया जाता है, इसलिए इस दिन बकरा, भेड़, ऊंट इत्यादि जानवरों का मांस अपने घरवालों, गरीब रिश्तेदारों  तथा अन्य गरीबों में बांटा जाता है। हालाँकि गाय की कुर्बानी की इस्लाम में इजाज़त है, लेकिन भारत में हिन्दू धर्म के अनुयाइयों की भावनाओं का ख्याल रखते हुए मुग़ल साम्राज्य के दिनों से ही गाय की कुर्बानी की मनाही है, दारुल-उलूम-देवबंद जैसे इस्लामिक संगठन भी इसी कारण हर वर्ष मुसलमानों से गाय की कुर्बानी ना करने की अपील करते हैं।

अगर जानवरों की कुर्बानी पर एतराज़ की बात की जाए तो इसमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि इस्लामी मान्यता के अनुसार (बल्कि हिन्दू धर्म की मान्यता और विज्ञान के अनुसार भी) केवल जानवरों में ही नहीं बल्कि हर एक पेड़-पौधे में भी जीवन होता है, वह भी साँस लेते हैं, भोजन करते हैं, बातें करते हैं, यहाँ तक कि पेड़-पौधों में अहसास भी होता है, वह भी अन्य जीवों की तरह मसहूस कर सकते हैं।  अर्थात किसी पेड़-पौधे और अन्य जीव में अंतर नहीं होता और वह भी जीव ही की श्रेणी में आते हैं। जैसे जानवर अंडे / दूध  देते हैं उसी तरह पेड़-पौधे फल / दलहन / बीज देते हैं, जिससे की उनकी नस्ल आगे बढती रहे।

लेकिन यह सब जानने के बावजूद पढ़े-लिखे, यहाँ तक कि चिकित्सा और अध्यापन जैसे पेशे से जुड़े लोग भी जान-बूझकर ऐसे एतराज़ उठाते हैं जो कि लोगो की भावनाओं को भड़काने का काम करते हैं। बल्कि दिव्या जी तो इससे भी आगे बढ़कर मांसाहार करने वालों को दरिन्दे और आतंकवादियों की श्रेणी में रखती हैं, क्या यह कहीं से भी तर्कसंगत है?

हालाँकि ऐसे भड़काऊ लेख दोनों ही तरफ से लिखे जाते हैं और ज़रूरत ऐसे लेख लिखने वालो को हतोस्ताहित करने की है, लेकिन अक्सर ऐसे लेखों को पढने वालों एवं टिपण्णी करने वालों की संख्या दूसरे लेखों के मुकाबले कहीं अधिक होती है, जो कि लेखक के लिए उर्जा का कार्य करती है।

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