राष्ट्रमंडल खेल

शर्म का समय                                    या                                 गर्व का समय


मेहमान घर पर हैं...
और हम अपने घर का रोना
दुसरो के सामने रो रहे हैं
वह हमारे रोने पर हंस रहे हैं और
हम उनके हंसने पर खुश हो रहे हैं...


लड़ते तो हम हमेशा से आएं हैं
लेकिन समय हमेशा के लिए हमारे पास है
गलत बातों के विरुद्ध लड़ने के
नैतिक अधिकार की भी आस है

लेकिन.......
हमें फिर भी लड़ने की जल्द बाज़ी है,
क्योंकि मेहमान हमारे घर पर हैं
हमें बदनाम करने पर वह राज़ी हैं

सारा का सारा देश राजनीति का मारा है
'अभी नहीं तो कभी नहीं' हमारा नारा है

देश का क्या है?
जब पहले नहीं सोचा
तो अब ही क्यों?

 जय हो!





एक नज़र यहाँ भी: राष्ट्रमंडल खेलों के स्थल की तस्वीरें

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मंदिर-मस्जिद बहुत बनाया


मंदिर-मस्जिद बहुत बनाया, आओ मिलकर देश बनाएँ
हर मज़हब को बहुत सजाया, आओ मिलकर देश 
सजाएँ


मंदिर-मस्जिद के झगड़ों ने लाखों दिल घायल कर डाले
अपने ख़ुद को बहुत हंसाया, आओ मिलकर देश हसाएँ

मालिक, खालिक, दाता है वो, सदा रहे मन-मंदिर में
उसका घर है बसा बसाया, आओ मिलकर देश बसाएँ

गाँव, खेत, खलिहान उजड़ते, आँखे पर किसकी नम है
इतना प्यारा देश हमारा, आओ मिलकर देश चलाएँ

अपने घर का शोर मचाया, दुनिया के दिखलाने को
अपने घर को बहुत दिखाया, आओ मिलकर देश दिखाएँ

नफरत के तूफ़ान उड़ा कर, देख चुके हैं जग वाले
प्रेम से कोई पार न पाया, आओ मिलकर प्रेम बढाएँ

मंदिर-मस्जिद पर मत बाँटो, हर इसाँ को जीने दो
भारत की गलियों में 'साहिल', चलो ख़ुशी के दीप जलाएँ

- शाहनवाज़ 'साहिल'



Keyword: bharat, india, mandir, masjid, friendship, love, war

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व्यंग्य: निगम की तर्ज़ पर सफाई

अपने एक मित्र के घर जाना हुआ, घर की साफ-सफाई देखकर दिल खुश हो गया। फोन पर बात करते हुए एक कोने में गया तो देखा परदे के पीछे कूड़ा भरा हुआ था। मतलब मेहमान की आमद पर कूड़े-करकट को छुपाया गया था। देखकर अहसास हुआ कि यह तो हमारे नगर निगम की नकल है! हमारी कॉलोनी में भी तो ठीक इसी तरह सफाई रहती है, लेकिन सड़क पर एक बड़ा सा बदबूदार कूड़ादान बनाया हुआ है। मज़े की बात तो यह है कि कूड़ा कू़ड़ेदान की जगह सड़क पर भरा रहता है। ज़रा सोचिए सड़क को खाली रखने के लिए क्या बेहतरीन योजना बनाई गई है। सड़क गंदी होगी तो लोग सड़क पर से गुज़रेंगे ही नहीं।

वैसे हमारा नगर निगम जीव-जन्तुओं का भी भरपूर ख्याल रखता है। अब अगर कूड़ेदान नहीं होंगे तो मच्छर-मक्खियों का क्या होगा? पता नहीं जानवरों के हक़ में लड़ाई लड़ने वाले संगठन इनके योगदान को कैसे भूल जाते हैं। मेरे विचार से तो नगर निगम को इसके योगदान के लिए पुरस्कार मिलना चाहिए। अब बरसात के दिनों में अगर यह लोग कूड़ेदान के पास पानी की निकासी का बंदोबस्त कर देते तो बेचारे मच्छर-मक्खियों जैसे जीवों का क्या होता? कितने जीव पैदा होने से रह जाते। कुदरत की जीवन प्रक्रिया में कितना योगदान देते हैं यह लोग। लेकिन अहसान फरामोश जनता इनके अहसान को ज़रा से 'लालच' में अनदेखा कर देती है, अपने जीवन से प्रेम 'लालच' ही तो है! अगर नगर निगम के अधिकारी शहर पर यह अहसान ना करें तो बेचारे मच्छर पैदा ही नहीं हो पाएंगे और अगर मच्छर ही पैदा नहीं होंगे तो डेंगू-मलेरिया जैसी बिमारियां कैसे फैलाएंगे? किसी ने सोचा है कि अगर यह बिमारियां नहीं फैलेंगी तो सरकारी अस्पतालों को काम कैसे मिलेगा? बेचारे डॉक्टर बिना प्रेक्टिस के इलाज करना ही भूल जाएंगे, और उनके साथ-साथ गरीब कर्मचारियों की भी उपर की कमाई जाएगी सो अलग! सबसे बड़ी बात तो यह कि इन बीमारियों से कितने ही गरीब लोग स्वर्ग सिधार जाते हैं। एक तो उन्हें इस नर्क रूपी जीवन से छुटकारा मिल जाता है, वहीं दूसरी ओर जनसंख्या वृद्धि पर भी रोक लग जाती है। सरकार कितना पैसा खर्च करती है जनसंख्या वृद्धि को रोकने में, परिवार नियोजन और ना जाने क्या-क्या? लेकिन नगर निगम को भूल जाते है! अब उन्हें कौन समझाए कि हमारा नगर निगम कितनी आसानी से हर साल पुरी दक्षता के साथ अपना यह कर्तव्य निभाता है।

उपर से कॉमनवेल्थ खेल होने वाले हैं, अब देखिए बेचारे लगे हुए हैं सफाई करने। आपको मालूम है विदेशी मीडिया कितनी खुश है? कहा जा रहा है कि देखो भारतीय कितने मेहनती है, आखिर समय तक मेहनत कर रहे हैं। अब अगर कर्मचारी पहले से ही सारा कूड़ा साफ कर देते तो यह नाम कैसे होता? पहले मच्छर-मक्खी पैदा किए हैं तभी तो उनको समाप्त करने का कार्य मिला है ना? अब डिर्पाटमेंट का नाम रौशन करना इतना आसान होता है क्या? अब तो आप को विश्वास हुआ कि मेरी नगर निगम को अवार्ड वाली मांग कितनी जायज़ है?

- शाहनवाज़ सिद्दीकी

(दैनिक हरिभूमि के आज [20 सितम्बर] के संस्करण में प्रष्ट न. 4 पर मेरा व्यंग्य)

Keyword: Vyangy, Hindi Critics, Nagar Nigam, Muncipal Corporation

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व्यंग्य: युवराज और विपक्ष का नाटक

हमारे युवराज जब भी गरीबों की बस्तियों में रात गुजारते हैं, तो विपक्ष बेचारे युवराज के पीछे पड़ जाता है और उनकी कुर्बानी को नाटक करार दे दिया जाता है. अब आप ही बताइए, किसी गरीब के घर पचास बार चैक करके बनाई गई दाल-रोटी खाना क्या किसी कुर्बानी से कम है? युवराज अगर महाराज बनने से पहले अपनी प्रजा की नब्ज़ को पहचानना चाहे तो क्या कोई बुराई है? अगर आज युवराज गरीबों की परेशानियों को जानेगे नहीं तो कल कैसे पता चलेगा कि आखिर गरीब लोग कितनी परेशानी झेल सकते हैं! (परेशानियाँ झेलने वाले की हिम्मत के अनुसार ही तो डालनी पड़ती हैं.) मेरे विचार से तो यह कोर्स हर उभरते हुए नेता को करना चाहिए. अरे! बुज़ुर्ग नेताओं को क्या आवश्यकता है? तजुर्बेकार नेतागण तो पहले ही खून चूसने में माहिर होते हैं! 

वैसे भी आज युवराज के पास समय है, तो समय के सदुपयोग पर इतना हो-हल्ला क्यों हो भला? यह सब आज नहीं करेंगे तो क्या कल करेंगे? कल जब महाराज बन जाएँगे तो फिर गरीब लोगों के लिए समय किसके पास होगा? फिर भला कैसे पता होगा कि कल्लू को अच्छे खाने की ज़रूरत ही नहीं है, वह बेचारा तो पतली दाल में भी बहुत खुश है.

- शाहनवाज़ सिद्दीकी

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भूकंप की अफवाह!

कल रात भर उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद, रामपुर, अमरोहा तथा आस-पास के क्षेत्रों में भूकंप की ज़बरदस्त अफवाह उडती रही. डर का आलम यह था कि इन क्षेत्रों के सभी निवासी रातभर अपने-अपने घरों से बाहर रहे और भूकंप के संभावित खतरे की खबर अपने जान-पहचान के लोगो तक पहुँचाने में लगे रहे. हम अपने घर पर सोये हुए थे, तभी रात को 2 बजे की आस-पास आए एक फ़ोन ने नींद उड़ा दी. उधर से बताया गया कि 3.30 पर भूकंप आने वाला है. अब एक ब्लॉगर होने के नाते दिमाग चलाना हमारा कर्तव्य बनता है, सो मैंने श्रीमती जी से कहा कि यार ऐसा कौन है जो भूकंप की पहले ही सूचना पहुंचा रहा है? उठने का बिलकुल मूंड नहीं था, पत्नी बोली "भूकंप आने वाला है और एक आप हैं कि सो रहे हैं, चलिए जल्दी से घर वालों को बताते हैं". इतनी देर में फ़ोन की घंटी लगातार खनखनाने लगी. हर कोई अधिक से अधिक लोगों को आने वाले खतरे के बारे में बताने के लिए आतुर था. पता चला कि पूरा क्षेत्र अपने घरों से बहर निकला हुआ है, धार्मिक स्थलों से लोगों को आगाह करने के लिए लाउडिसपीकर से बताया जा रहा था.

अब तक नींद तो उड़ ही चुकी थी, इसलिए सोचा ब्लॉग जगत में देखते हैं. देश में सबसे जागरूक ब्लॉगर ही होते हैं! [:-)] लेकिन चिटठा जगत पर एक भी पोस्ट भूकंप से सम्बंधित नहीं थी. जब कुछ नहीं मिला तो नवभारत टाइम्स और आजतक जैसी वेबसाइट खंगाली. यहाँ तक कि गूगल बाबा पर भी खोजने की कोशिश की, भूकंप विभाग की साईट पर भी देखा, लेकिन कहीं कुछ नहीं मिला. अब खीज बढ़ रही थी, सुबह-सुबह ऑफिस के निलना होता है और इस भूकंप के खतरे ने नींद उड़ा दी थी. इसलिए दुबारा वहीँ फ़ोन कर के मालूम किया कि आखिर उन्हें किसने बताया कि भूकंप आने वाला है, लेकिन वहां भी किसी को खबर नहीं थी कि यह खबर आखिर किसने दी. हर कोई यही कह रहा था, कि उनको किसी रिश्तेदार अथवा जान-पहचान वाले  ने बताया और वह स:परिवार डर के मारे घर से बाहर निकल आए.

अब तक रात के 3.15 बज चुके थे, पत्नी ने कहा परेशान क्यों हो रहे हैं, 3.30 होने वाले हैं, 15 मिनट ही तो इंतज़ार करना है, परिवार के साथ घर के बाहर चलते हैं. मेरे गुस्से का परा चढ़ चूका था, अब 15 मिनट तो क्या एक मिनट भी इंतज़ार नहीं कर सकता था. पत्नी से कहा सो जाओ और स्वयं भी चादर तान कर सो गया. सुबह उठकर देखा कि खुदा का शुक्र है सब-कुछ ठीक-ठाक है. अब तो पत्नी भी मान गई थी कि वाकई यह भूकंप की अफवाह भर थी [:-)]. लेकिन बेचारे मुरादाबाद और आस-पास के क्षेत्र के लोग, रात भर जिस डर से जागते रहे, वह एक झूटी अफवाह भर निकली! क्या मिलता है किसी को अफवाह फैला कर?

लोगो को भी चाहिए कि अगर कोई खबर पता चले तो सबसे पहले उसकी छानबीन करें तभी दूसरों तक पहुँचाएँ, वर्ना यूँ ही अफवाह फैलती आईं हैं और फैलती रहेंगी.

- शाहनवाज़ सिद्दीकी



Keywords: Earthquake, moradabad, rampur, amroha, भूकंप, ज़लज़ला, हाल्ला

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आपकी आँखों से आंसू बह गए


आपकी आँखों से आंसू बह गए,
हर इक लम्हे की कहानी कह गए।

मेरे वादे पर था एतमाद तुम्हे,
और सितम दुनिया का सारा सह गए।

- शाहनवाज़ सिद्दीकी

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ईद मुबारक!

सभी मित्रों एवं शुभचिंतकों को ईद की बहुत-बहुत मुबारकबाद। अल्लाह से दुआ है कि यह ईद ना केवल हिंदुस्तान में बल्कि पूरे आलम में चैन-अमन एवं खुशियां लेकर आए....... आमीन!

वैसे तो ईद का मतलब त्यौहार होता है और इस लिहाज़ से हर त्यौहार ईद ही कहलाएगा। चाहे वह यौम-ए-आज़ादी (स्वतत्रंता दिवस) हो अथवा दीपावली। मतलब अरबी में दीपों के त्यौहार को ईद-उल-दिवाली कहा जाएगा!

इस  ईद है इसका नाम है ईद-उल-फित्र, यानी रमज़ान के पवित्र महीने के सभी रोज़े रखने की ख़ुशी मानाने  का त्यौहार। यह ईद माह-ए-रमज़ान के बाद आती है और रोज़ेदारो के लिए तोहफा होती है। रमज़ान के महीने में रोज़े रखे जाते हैं जिनके द्वारा धैर्य, विन्रमता और अध्यात्म को आत्मसात किया जाता है।

रोज़े रखने के मक़सदों में से एक अहम मकसद ज़कात की अदायगी भी है। हर मुसलमान को रमज़ान के महीनें में अपनी ज़कात का पूरा-पूरा हिसाब लगा कर उसे अदा करना होता है, जो कि कुल बचत की 2.5 प्रतिशत होती है। जब कोई रोज़ा रखता हैं तो और बातों के साथ-साथ उसे भूख का भी अहसास होता है और साथ ही साथ अहसास होता है कि जो लोग भूखे-प्यासे हैं, अपनी बचत में से उन तक उनका हक यानि ज़कात पूरी-पूरी पहुचाई जाए। और इस अहसास के बाद यह आशा की जाती है कि सभी अपनी पूरी ज़कात अच्छी तरह से हिसाब लगा कर हकदारों तक पहुंचाएगा। अगर ज़कात बिना हिसाब-किताब के केवल अन्दाज़ा लगा कर ही दे दी गई तो ज़कात अदा नहीं होती है। वहीं अगर उसके हकदार यानि सही मायने में ज़रूरत मंद तक नहीं पहुंचाई गई और यूँ ही दिखावे करके मागने वालों को दे दी गई तब भी वह अदा नहीं होती है।

इसका मतलब यह हुआ कि बिना सोचे समझे ज़कात दे देने से फर्ज़ अता नहीं होता है। अगर किसी को अपनी कमाई में से हिस्सा दिया जाता है तो पूरी तरह छानबीन करके ही दिया जाना चाहिए। अक्सर लोग यतीम और गरीब बच्चों की पढ़ाई और पालन-पोषण में लगे मदरसों को ज़कात देना उचित समझते हैं। लेकिन वहां भी यह देखा जाना ज़रूरी है कि वहां पढ़ाई तथा रहन-सहन उचित तरीके से हो रहा हो। अर्थात पैसों का सदुपयोग सुनिश्चित होना आवश्यक है, वर्ना ज़कात अदा नहीं होगी और दुबारा देनी पड़ेगी।

ईद की खुशियां चांद देखकर मनाई जाने लगती हैं। ईद का चांद बेहद खूबसूरत और नाज़ूक होता है, तथा थोड़ी देर के लिए ही नमूदार (दिखाई) होता है। ईद के चांद और चांदरात पर तो शायरी की ढेरों किताबें लिखी गई हैं। इस दिन सभी लोग सुबह जल्दी उठ कर नहाने के बाद फज्र की नमाज़ अता करते हैं। क्योंकि यह दिन रमज़ान के महीने की समाप्ती पर आता है इसलिए इस दिन रोज़ा रखना मना होता है। इसलिए सुबह थोड़ा बहुत नाश्ता किया जाता है, इसमें सिवंईया, खजला, फैनी, शीर तथा खीर जैसे मीठे-मीठे पकवान बनाए जाते हैं। उसके बाद ईद की नमाज़ की तैयारी की जाती है। ईद की नमाज़ से पहले हर इन्सान का फितरा अता किया जाना आवश्यक होता है। फितरा एक तयशुदा रकम होती है जो कि गरीबों को दी जाती है। ईद की नमाज़ वाजिब होती है, अर्थात इसको छोड़ना गुनाह होता है। ईद की नमाज़ पूरी होने के बाद सिलसिला शुरू होता है एक-दुसरे से गले मिलने का, जो कि ख़ास तौर पर पुरे दिन चलता है और बदस्तूर पुरे साल जारी रहता है। और हाँ, घर पहुँच कर बच्चे ईदी के लिए झगड़ने लगते हैं, इस प्यार भरी तकरार के ज़रिये बच्चों को पैसे अथवा तोहफा के रूप में ईदी लेने में बड़ा मज़ा आता है। जब दोस्तों और रिश्तेदारों के घर जाते हैं तो वहां भी बच्चों को ईदी दी जाती है।

ईद खुशियां और भाईचारे का पैग़ाम लेकर आती है, इस दिन दुश्मनों को भी सलाम किया जाता है यानि सलामती की दुआ दी जाती है और प्यार से गले मिलकर गिले-शिकवे दूर किए जाते हैं।

ब्लॉग जगत के सभी लेखकों, टिप्पणीकारों तथा पाठकों को ईद-उल-फित्र की दिल से मुबारकबाद!

- शाहनवाज़ सिद्दीकी



Keywords: Eid Mubarak, Festival, Eid Greetings

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कैसी कैसी फितरत!

इस धरती पर हर एक की अपनी अलग फितरत होती है, ज़रा देखते हैं कि किसकी कैसी फितरत है?



लड़के (नर्क में): यार यमराज की लड़की क्या माल है बाप! चलती है तो लगता है फूल गिर रहे हैं। नर्क के सारे लड़के उसके ही पीछे है, एक बार बात करने का मौका मिल जाए!
(संदेशः छिछौरे नर्क में भी छिछौरे ही रहते हैं!)



लड़कियां (स्वर्ग में): इस अप्सरा की नेल पाॅलिश क्या टैकी है यार और वोह ड्रेस देखी उसकी! यह इतनी पतली कैसे है? मैं तो डाईटिंग कर-कर के थक गई, फिर भी वेट (वज़न) कम ही नहीं होता।
(संदेशः यहां भी दूसरी से जलन)


अधेड़ उम्र के साथी (नर्क में): अरे भाई, कल पड़ोस के आग के पार्क में सुबह-सुबह जौगिंग कर रहा था, (बाई आंख मारते हुए) वोह लल्लन की छोरी आग में भी गुलज़ार लग रही थी।
दूसराः तो कुछ बात-वात की?
पहलाः अरे मिंया अब इतनी उम्र कहाँ कि उस नवयौवना का पीछे कर पाते, आंखो से ही दूर तक छोड़ आए।
(संदेशः इस उम्र में भी....!)





बहु (स्वर्ग में): हे प्रभु! मेरी सास मुझे दिन-रात सताती है, उसे यहां क्यों रखा है? काश! यह नर्क में चली जाए, हम साथ-साथ नहीं रह सकते हैं।
(संदेशः हमेंशा ही अलग रहने की सोच, चाहे सास जाए भाड मे!)

स्वर्ग में है इसलिए इसकी मनोकामना क़ुबूल हो गई. उसकी विश कुबूल होने के बाद।
सास (नर्क में): प्रभु! नर्क में बहुत तकलीफ है, मेरी बहु अगर मेरी सेवा करती तो अच्छा था। मेरा उसके बिना दिल नहीं लगता है, उसे भी मेरे पास भेज दीजिए।
(संदेशः मतलब अपना भला हो ना हो, लेकिन बहु का बुरा अवश्य होना चाहिए।)


बाप और बेटा (धरती पर): प्रभु हमें कहां छोड़ दिया? वोह दोनों चाहे जैसी भी थी, लेकिन............. नौटंकी के बिना अब तो खाना भी हज़म नहीं होता है! प्लीज़ हमें भी उनके पास भेज दीजिये!
===> यह बेचारे वोह प्राणी है कि प्रभु ने भी सोचा कि इनका अकेला रहना ही बेहतर है। लेकिन अकेले रहना इनके बस का कहाँ है???
(संदेशः यह वोह खरबूज़े हैं जिन्हें हर हाल में कटना ही कटना है! मतलब एक का पक्ष लिया तो दूसरी नाराज़)




बाप बेटे से (परलोक में): बेटा यह चाहे परलोक ही क्यों ना हो लेकिन महिलाएँ, यहाँ भी महिलाएँ ही हैं। माँ और पत्नी में से कभी किसी एक का पक्ष मत लेना, मगर किसी एक के सामने हमेशा उसका ही पक्ष लेना! और हाँ कभी भूल कर भी पत्नी के सामने अप्सराओं को मत घूरना, वर्ना जीते जी धरती सिधार जाओगे!





वैसे मर्द, मर्द ही होते हैं, यकीन नहीं आता है तो यह देखो.........
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Keywords: Hindi Critics, फितरत

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अहोभाग्य! बिजली गुल!

बिजली विभाग के बड़े उपकार है हम मर्दो पर। अगर बिजली गुल नही होती तो प्रेम के परवानों का क्या होता? प्रेमी तो इंतज़ार किया करते हैं कि बिजली भागे और मिलने का प्रोग्राम बने। सोचिए अपनी छत पर खड़े होकर अंधेरी रात में भी पड़ोसन को चुपचाप देखने का क्या मज़ा है? पड़ोसन चाहे कहीं ओर देख रही हो, लेकिन मजनू मिंया खुश! अंधेरा यह सुखद अहसास दिलाता रहता है कि नज़रे इनायत उस पर ही हैं। कुछ मामलों में तो बिजली गुल होना अमीरी-गरीबी की दिवारें तक मिटा देता है। अब कैंडल लाईट डिनर का मज़ा लेने का हक केवल अमीरो को ही क्यों हो? भला हो बिजली विभाग का जिनकी कृपा दृष्टि के कारण अमीरों का यह शौक गरीब भी पूरा कर लेते है।

बीते दिनों में कौन नहीं लौटना चाहता? अब देखिए बिजली विभाग कितना खयाल रखता है लोगों की भावनाओं का! बिजली भागते ही हाथ के पंखे निकल आते हैं। वैसे भी बड़े कहते हैं कि पुराने दिन हमेंशा याद रखने चाहिए, इससे इन्सान, इन्सान बना रहता है। तो अब समझ में आया कि बिजली का गुल होना हमारे इन्सान बने रहने में कितना सहायक है? वैसे इन्सान ही क्या बिजली विभाग से तो भगवान भी खुश रहते होंगे! बिजली के समय भी कोई भक्ति होती है? भक्त बस कैसेट लगाकर सुनते रहते हैं, लेकिन बिजली गुल होने पर भक्तों को स्वयं भजन-कीर्तन करना पड़ता है! है ना बिजली गुल की भी अजीब ही लीला? प्रभु भी खुश और भक्त भी! आजकल सबसे अधिक परेशानी उत्पन्न होती है मोबाईल फोन से, इसने जीवन को बंधक बना दिया है। अब देखिए जब बिजली गुल हो जाती है तो यह चार्ज ही नहीं हो पाता है, मतलब जीवन चिंता मुक्त! प्रेमीयों की तो पौ बाराह हो जाती है, बातचीत से आराम मिला सो अलग ऊपर से जेब भी ढीली होने से बच गई!

वैसे गृहणियां भगवान से अपने पति की कामयाबी की प्रार्थना करे या ना करें लेकिन धारावाहिक के समय बिजली गुल नहीं होने की मन्नत अवश्य मांगती हैं। वैसे भी अगर काम के समय बिजली भाग भी जाए तो क्या होगा? हद से हद कार्यालय में कार्य बंद हो जाएंगे, कहीं जहाज़ नहीं उड़ पाएगा या कहीं रेल नहीं चल पाएगी, स्कूल में पढ़ाई बंद हो जाएगी अथवा व्यापार में घाटा हो जाएगा, इससे अधिक और क्या हो सकता है? यह भी कोई नुकसान हैं? गृहणियों की नज़रों में असल नुकसान तो किसी धारावाहिक के समय बिजली गुल होना है। उधर कोई मरा हुआ हीरो ज़िंदा हो जाएगा! दूसरी छोड़ो, तीसरी शादी भी हो जाएगी! सास बहु के अथवा बहु अपनी सास के खिलाफ साज़िश को अंजाम दे देगी तो कोई ननद अपनी भाभी को घर से निकलवा देगी और इधर बेचारी गृहणियों को खबर भी नहीं होगी!

"अब पता चला कि बिजली विभाग बिजली गुल करके मर्दो का कितना खयाल रखता है? बिजली गुल होती है तो लगता है कि पत्नी आज घर पर है वर्ना तो टीवी के चक्कर में बीवी का दीदार ही नामुमकिन है।"

- शाहनवाज़ सिद्दीकी


(दैनिक हरिभूमि - 6 सितम्बर के संस्करण में प्रकाशित व्यंग्य)






Keywords: Bijli Gul, haribhumi daily newspaper, vyang, vyangy, critics, electricity,

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मुझको कैसा दिन दिखाया ज़िन्दगी ने



मुझको कैसा दिन दिखाया ज़िन्दगी ने
हर इक को मुझ पर हंसाया ज़िन्दगी ने

तुझको खोकर ज़िन्दगी से जब मिले थे
मौत की हद तक सताया ज़िन्दगी ने

हमको बहुत नाज़ था अपनी हंसी पर
खून के आंसू रुलाया ज़िन्दगी ने

सुन के हर इक शेर यह दिल रो पड़ा था
जब गीत मेरा गुनगुनाया ज़िन्दगी ने

यूँ तो मरते हैं जहाँ में लाखों लोग
उस मौत पर आंसू बहाया ज़िन्दगी ने



- शाहनवाज़ सिद्दीकी 'साहिल'




Keywords: Death, Gazal, Ghazal, आंसू, गीत, गुनगुनाया, ज़िन्दगी, नाज़, मौत, रुलाया, शेर, सताया, हंसी

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क्रूरतम हत्याओं का घृणित खेल!

इस फोटो में जो समुन्द्र का लाल रंग दिखाई दे रहा है यह जलवायु के प्राकृतिक प्रकोप के कारण लाल नहीं हुआ है. बल्कि समुन्द्र का यह लाल रंग सभ्य कहलाने वाले मनुष्य नामक प्राणी के द्वारा रोमांच के नाम पर पूरी दुनिया में मशहूर एक अक्लमंद डॉल्फिन "काल्ड्रोन" की सामूहिक और क्रूरतम हत्या के कारण हुआ है. यह घृणित खेल डेनमार्क के "फेरोए आइलैंड" पर हर वर्ष दोहराया जाता है. इस शर्मनाक खेल में नौजवान हिस्सा लेते हैं. पूरी मानवता को शर्मसार करने वाले इस खेल के द्वारा नौजवान अपने वयस्क और परिपक्व होने का सबूत देते हैं. वह दुनिया को अपनी ताकत का प्रदर्शन करके यह जतला देना चाहते हैं कि उनमें कितना दम है!

इस बहुत बड़े समारोह में मस्ती का कोई मौका नहीं छोड़ा जाता है. हर कोई इस प्यारे से प्राणी डॉल्फिन की हत्या नए-नए तरीके से करने की कोशिश करता है या फिर इस शर्मनाक खेल के समर्थन में दर्शक बन कर मज़े लुटते प्रतीत होते हैं.

कैसी विडंबना है?

यहाँ यह बताता चलता हूँ कि  "काल्ड्रोन डॉल्फिन" अन्य डॉल्फिन मछलियों की तरह विलुप्त होने की कगार पर है.  डॉल्फिन की यह प्रजाति दोस्ती के लिए मनुष्यों के काफी निकट तक आ जाती हैं.

"काल्ड्रोन डॉल्फिन" एकदम से नहीं मरती हैं, इसलिए इनको मोटे हुक से कई बार कांटा जाता है. उस समय डॉल्फिन मौत से बचने की फ़रियाद लिए ऐसे भयंकर तरीके से चिल्लाती हैं कि बड़े-से-बड़ा संगदिल इंसान भी पसीज जाए. लेकिन उनके हत्यारे इसपर और अधिक खुश होते हैं. क्रूर नौजवानों के गर्दिश मारते खून के थोड़े से रोमांच नामक हवस का शिकार होकर यह मासूम प्राणी विश्व में सबसे क्रूरतम तरीके से मार दी जाती हैं.

क्या इन राक्षसों को रोकने का कोई तरीका नहीं है?











- शाहनवाज़ सिद्दीकी



Keywords: Calderon Dolphins Fish, Denmark

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