अक्लमंद और कमअक्ल के 'वोट' का वज़न बराबर क्यों?

मैं भारतीय लोकतंत्र को शासन व्यवस्था में सबसे बेहतरीन समझता हूँ, मगर इसमें भी बहुत सी कमियाँ हैं। जैसे कि लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव में अक्लमंद और कमअक्ल के 'वोट' का वज़न (Value / weightage) बराबर होता है, जबकि यह सर्वविदित है कि निर्णय लेने में 'अक्ल का दखल' होता है और इसके कम या ज़्यादा होने का फ़र्क निर्णय के सही होने के स्तर पर पड़ता है।

चुनाव में मताधिकार का मतलब ऐसे उम्मीदवार के चयन के लिए अपनी राय देना है, जो कि सबसे अच्छी तरह से सम्बंधित क्षेत्र में शासन व्यवस्था संभाल सकता है या / और उससे सम्बंधित दल निकाय / राज्य या देश की शासन व्यवस्था का संचालन कर सकता है। 

सही उम्मीदवार का चुनाव क्षेत्र / देश के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है, ऐसे में किसी उम्मीदवार के लिए दो असमान बुद्धि वाले लोगों की राय का वज़न सामान कैसे हो सकता है?

हालाँकि किसी की अक्ल को नापने का पैमाना इतना आसान नहीं है, मगर फिर भी कम से कम शिक्षा के आधार पर 'वोट का वज़न' तय किया ही जा सकता है! 

हालाँकि यह भी सही तर्क है कि अनुभव शिक्षा पर भारी पड़ सकता है और हमारे देश में शिक्षा प्रणाली भी अभी उतनी मज़बूत नहीं है। मगर कमियों के बावजूद शिक्षा को छोड़कर कोई और ऐसा पैमाना नज़र नहीं आता है, जहाँ परीक्षा के द्वारा अक़्ल का पैमाना तय होता हो। 


आपका क्या ख़याल है?

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कैसा मुख्यमंत्री!

क्या मंत्री / मुख्यमंत्री होने का यह मतलब है कि जनता से जुड़े मुद्दों पर अपनी लाचारी या दूसरों की ज़िम्मेदारी दिखाकर चुप बैठा जाए? या फिर बस प्रेस में यह बयान देकर इतिश्री पा ली जाए कि पुलिस प्रबंधन मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं आता? पुलिस चाहे किसी के भी अधिकार क्षेत्र में आए, लेकिन अन्य विभागों की तरह उनको भी जनता के प्रति जवाबदेह होना पड़ेगा। और मुख्यमंत्री जनता का प्रतिनिधि होता है, मतलब जनता की आवाज़। प्रदेश की जनता के हित में वोह केवल गदगदी कुर्सी पर दिन और मखमली बिस्तर पर रात बिताने के लिए नहीं बना है।

मानता हूँ कि लोगो को अभी यह बात हज़म नहीं होगी, क्योंकि अभी तक तो हमने आभामंडल से घिरे मंत्री-मुख्यमंत्री ही देखें हैं। रात को सड़कों पर रात गुज़ारने वाला, मुख्यमंत्री देखने पर पेट में हड़बड़ी तो होगी ही, हाज़मा ठीक होने में थोड़ा तो वक़्त लगेगा ही।

बड़े-बड़े लोक-लुभावन वादे बहुत हुए, जनता के द्वारा चुने हुए नेता को लोगो के हक़ के लिए लड़ने वाला ही होना चाहिए, अपने अधिकार क्षेत्र में जनहित के फैसले ले और अधिकार क्षेत्र के बाहर वाले क्षेत्रों में लोगो के कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हो।

याद रखना अगर हम सुधर गए और वाकई वोट देने लगें तो इन सभी पार्टियों को ऐसा ही बनना पड़ेगा, हर क्षेत्र में जनता का प्रतिनिधि!

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राजनैतिक पार्टियों का मिडिया मैनेजमेंट

क्या इसे मिडिया मैनेजमेंट नहीं कहा जाएगा कि एक तरफ तो नरेन्द्र मोदी के दिल्ली आने पर एयरपोर्ट से ही कवरेज की होड़ लग जाती है और उनकी रैलियों के एक-एक पल को लाइव दिखाया जाता है और फिर ऐसा भी होता है कि उनके दिल्ली में 2 दिन तक रुकने के बावजूद छोटी से भी कवरेज से महरूम रह जाते हैं।

वहीँ दूसरी तरफ राहुल गांधी को कभी तो ज़रूरत से ज्यादा कमज़ोर दिखाया जाता है और फिर अचानक ही महानायक दिखाने की कोशिश की जाती है!

ऐसा क्यों होता है कि अरविन्द केजरीवाल में मसीहा की छवि देखने-दिखाने वाला मिडिया अचानक ही उनमें दुनिया भर की कमियां ढूँढने लगता है।

क्या आज का मिडिया सनसनी फैलाने की ताकत रखने वाले मुद्दों से संचालित हो रहा है या फिर राजनैतिक पार्टियों के उन्हें मैनेज करने की ताकत से? 

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पुरानी स्ट्रेटिजी है भीतरघात

'आप' को इससे भी ज़्यादा भीतरघात के लिए तैयार रहना चाहिए, यह तो किसी को बदनाम करने और उसकी मुहीम को नुक्सान पहुंचाने की सदियों पुरानी स्ट्रेटिजी है। 

मुहम्मद (स.अ.व.) के समय जब कबीले के कबीले उनके साथ आने लगे तो दुश्मनों ने स्ट्रेटिजी बनाई, वह अपने लोगो को भी उनके साथ कर देते और कुछ समय बाद वह लोग उनपर इलज़ाम लगा कर अलग हो जाते, जिससे कि उनके साथ आ चुके या आ रहे लोगो में भ्रम फ़ैल सके। मगर मुहम्मद (स.अ.व.) के आला क़िरदार और सत्य के पथ पर चलने के कारण उनके साथियों ने उनका साथ नहीं छोड़ा।

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