क्या टीम अरविन्द को मौका मिलना चाहिए?


मैं अन्ना जी और अरविन्द केजरीवाल दोनों का मुद्दों पर आधारित प्रशंसक हूँ, आज के राजनैतिक परिवेश में मुझे राजनैतिक भ्रष्टाचार दूर करने और देश की व्यवस्था में बदलाव लाने का केवल यही एक रास्ता और मंच नज़र आता है, हालाँकि मैं इनकी किसी भी गलत बात का कभी भी समर्थन नहीं करूँगा, बल्कि खुलकर विरोध करूँगा। क्योंकि मेरा मानना है कि सही बात का समर्थन हो, या ना हो... मगर गलत बात का विरोध हर हाल में होना चाहिए।
इसी आधार पर मैं यह मानता हूँ कि मुद्दों पर दोनों के बीच मतभेद हो सकते हैं और मतभेदों का होना गलत भी नहीं हैं। दोनों की राहें जुदा भी हो जाएं मगर फिलहाल तक मंज़िल एक ही नज़र आती है।
अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम ने एक कदम आगे बढ़कर जनता के बीच जाने का फैसला किया है, ताकि जनता उन्हें / उनके मुद्दों को / उनके द्वारा मुद्दों को उठाने के तरीके को या फिर उनके द्वारा व्यक्त किए गए समाधान को सीधे चुन सके या नकार सके। उनका यह कदम उन्हें अपने सुझावों को लागु करने का उत्तरदायित्व उठाने वाला दिखाता है।
इसके बावजूद मैं यह भी मानता हूँ कि अधिकतर लोगों ने इन्हे अभी तक मीडिया या व्यक्तिगत तौर पर केवल जाना भर है, पहचाना नहीं है। और मुझे लगता है कि पहचानने के लिए मौका दिया जाना चाहिए, क्योंकि तस्वीर उसके बाद ही साफ़ हो पाएगी।




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घटिया राजनीती - ऊबते लोग


दिल्ली में RaGa और मध्य प्रदेश में NaMo की रैलियों में भीड़ नदारद होने लगी है, लाखों की भीड़ का दावा करने वाले दस-बीस हज़ार लोगो को भी नहीं जुटा पा रहे हैं... यह बताता है कि जनता नेताओं से ऊब रही है... जिस तरह की राजनीती और बयानबाज़ी चल रही है, उससे देख कर यह ऊब जायज़ भी लगती है...


देश में अनेकों बार चुनाव हुए, लेकिन जिस तरह की घटिया राजनीती इस बार हो रही है, वैसी कम से कम मेरे सामने तो कभी नहीं हुई. चुनाव में जीत के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, अपशब्द बोले जा रहे हैं, दंगे करवाये जा रहे हैं, साज़िशें रची जा रही हैं, तथ्यों को तोडा-मरोड़ा ही नहीं जा रहा बल्कि सिरे से ही बदलने की कोशिशें है...

और अगर आप इनके खिलाफ कुछ बोलों तो फौजें तैयार है आपके ऊपर सायबर हमलें करने के लिए.... पता नहीं अभी २०१४ तक क्या-क्या देखने / सहने को मिलने वाला है?

ख़ुदा खैर करे!!!
 
 
(Photo courtesy: Aajtak)

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शहादत-ए-हुसैन का पैग़ाम


यजीद अपनी बदबख्तियों पर दीन की मुहर लगाना चाहता था और इसीलिए वोह चाहता था कि हज़रत मुहम्मद मुस्तफा के प्यारे नवासे हुसैन (र.) उसकी बातों पर मुहर लगाएं, मतलब कि उसके हाथ पर बै'त करें। मगर हुसैन (र.) ने खुद अपने आप और अहल-ओ-अयाल का शहीद हो जाना पसंद किया लेकिन दीन को मिटते देखना गंवारा नहीं किया।

जिन लोगो ने मुहर्रम की दसवीं तारीख मतलब आज ही के दिन हज़रत हुसैन (रज़ी.) और उनके साथियों को इस कदर वहशियाना तरीके से शहीद किया वोह लोग यजीद और यजीदी सोच के पेरुकार थे... और उनका मक़सद किसी भी क़ीमत पर सत्ता पर कब्ज़ा था...

और यह सोच आज भी जिंदा है, चाहे वोह सत्ता मुल्कों की हो या समूहों की... और ऐसी सोच के खिलाफ आवाज़ बुलंद करना और मज़हब के नाम पर हो रही बदबख्तियों के खिलाफ आवाज़ उठाना ही शहादत-ए-हुसैन का पैग़ाम है।

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इंसानी ग़ैर-बराबरी के खिलाफ आवाज़ बुलंद करें

जिस तरह से मेरा नाम मेरी पहचान है उसी तरह मेरे सरनेम से मेरे खानदान की पहचान जुडी है। इससे मैं किसी से बड़ा या छोटा नहीं होता। कोई भी इंसान बड़ा या छोटा केवल और केवल अपने विचारों और उस पर अमल से होता है। दुनिया में हर इंसान बराबर है। ज़ात/बिरादरी और मज़हब के नाम से जुडी इस छोटे-बड़े की ज़ंजीरों से निजात पाना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है।

इसके लिए ज़रूरत अपना सरनेम छोड़ने की नहीं बल्कि घटिया विचारों को छोड़ने की है। ऐसी सोच वालों की इस तरह की सोच का खुलकर विरोध कीजिये। जिस तरह मस्जिद में बिना भेदभाव कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होते है, आप ठीक उसी तरह दिलों में सबको बराबरी का भागिदार बनाइये।

उठिए, आवाज़ उठाइये!








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