अब यहां शमाँ से परवाने दूर रहते हैं



अब यहां शमाँ से परवाने दूर रहते हैं,
यादे महबूबी से दीवाने दूर रहते हैं।


बात अन्जानों की क्या कीजिए इस महफिल में,
नफरत की आग में अपने ही चूर रहते हैं।

प्यार के नाम से मशहूर थी बस्ती अपनी,
अब तो बारूद के गुब्बार घिरे रहते हैं।

हर तरफ आग है, शोलें है और नफरत है,
कौन जाने यहाँ कि 'अमन' किसे कहते हैं।

हर कोई खोद रहा नींव जिस ईमारत की,
उस इमारत में वोह सब के सब ही रहते है।

नज़र लगी है कुछ नापाक खयालातों की,
वीराना देख के सब लोग यही कहते हैं।

कभी तो आएंगी खुशियां हमारे आंगन में,
इसी उम्मीद पे ‘साहिल’ ग़मों को सहते हैं।


- शाहनवाज़ सिद्दीकी 'साहिल'







Keywords: Ghazal, India, Shama, आतंकवाद, हिंदी

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निवेश के नाम पर ठगी

आज कल कार खरीद के बदले किराया देने के नाम पर आम जनता की गाढ़ी कमाई लूटने का धंधा ज़ोरो पर है। कुछ कंपनियां अपने आप को मोटर कार किराए पर चलाने वाली कंपनी बता कर लोगो से कार शेयर पर चलाने के लिए पैसे मांगती हैं। इसमें एक यूनिट के आमतौर पर एक लाख पचास हज़ार रूपये के आस-पास पैसे वह लोगो से वसूलती हैं तथा बदले में पांच वर्ष तक हर माह आठ-नौ हज़ार रूपये तथा अंत में पांच साल पुरानी कार के बदले हर यूनिट के पचास-साठ हज़ार रूपये देने की बात करती है।

ऐसी कंपनियां कुछ महीनों तक तो ठीक-ठाक चलती रहती हैं, जब लोगों को उनपर यकीन आ जाता है तो वह अपना सबकुछ इसी काम में लगा देते हैं। यहां तक की अपनी पहचान वालों को भी इस तथाकथित व्यापार में अपना पैसा लगाने के लिए तैयार करते हैं। अक्सर ऐसी कंपनियां नए ग्राहक लाने के लिए कमीशन का लालच भी देती हैं ताकि जल्द से जल्द से ज्यादा पैसा बटोरा जा सके। कई लोग तो अपने पुश्तैनी घर तक बेच कर लाखों रूपये अपने बुढ़ापे के आसरे के लालच में इन लालची कंपनियो के दे देते हैं। अच्छा पैसा इकट्ठा हो जाने पर यह कम्पनियां र्फूचक्कर हो जाती है। जब लोगों के बैंक अकाउंट में उक्त महीने के पैसे नहीं आते तो उनके पैरो तले ज़मीन खिसक जाती है। कई लोग अपना सबकुछ गवां देने के बाद खुदकुशी का सहारा लेते हैं।

सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि आज समाज में इतनी जागरूकता होने के बात भी ऐसे ठग आसानी से कैसे लोगों को ठग लेते हैं। और जहां आज कोई एक पैसे से भी किसी की सहायता करने के लिए तैयार नहीं होता है, वहां अपने जीवन भर की गाढ़ी कमाई कैसे दे देता है? दरअसल ऐसी कंपनियां मनोविज्ञान में माहिर होती हैं और जानती है कि मध्यवर्गीय लोगों को लोभ में लेने की नस कहां है। इसलिए सबसे पहले नुकसान सह कर भी अपने उपर विश्वास जमाया जाता है। ऐसी कंपनियां चलाने वाले जानते हैं कि मध्यमवर्गीय लोगों को लाभ के लोभ में फंसा कर अक्ल से अंधा किया जा सकता है और इसके लिए उनका विश्वास जीतना सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य है। एक बार विश्वास जमा तो रात-दिन पैसा कमाने की धुन में परेशान लोगों के पास समय ही नहीं बचता है यह देखने के लिए कि कंपनी उनके पैसे का प्रयोग कैसे कर रही है। यह लोग ऐसे जाल बुनने के लिए पूर्व निवेशकों और दलालों के द्वारा लोगों को यह एहसास दिलाते है बहुत से निवेशक अपना पैसा लगाने के लिए तैयार है, पैसा लिए घूम रहे हैं लेकिन कंपनी बड़ी मुश्किल से और व्यक्तिगत रसूख के कारण उसका पैसा अपने कारोबार में लगाने के लिए तैयार हुई है। इसमें कई बार दलाल निवेशकों से कमीशन तक लेते हैं. इस चक्कर में कोई भी इन कंपनियों के लाईसेंस तथा कारोबार से जुड़े अन्य कागज़ात के बारे में पता करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाता है।

सबसे दुखद पहलू यह है कि प्रशासन सबकुछ देखते हुए भी जानबूझ कर कर सोया रहता है और उसकी नींद तब खुलती है जब कंपनियां लोगो की गाढ़ी कमाई को ठग कर रफूचक्कर हो चुकी होती है। प्रशासन से तो इस मामले में उम्मीद करना दूर की कौड़ी है। समाज को स्वयं ही इस तरह के घोटालों से बचने के लिए कमर कसनी होगी। और एक-दूसरे को इस तरह की ठगियों के बारे में शिक्षित करने से ही यह संभव हो सकता है।

-शाहनवाज़ सिद्दीकी



Keywords:
Car-on-rent, Fraud, Thug, ठग, ठगी, निवेश

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मेंरी बेखुदी

हम दिए मौहब्बत के जलाते रहे हर रोज़
हम इश्क़ के महल को सजाते रहे हर रोज़

मेरे मरने के बाद भी मुझे करते हैं परेशां
वोह इसीलिए कब्र पर आते रहे हर रोज़

मालूम न था परदेसी लौट कर नहीं आते
हम ‘सदा’ वीरानों में लगाते रहे हर रोज़

अब मेंरी बेखुदी का सलीका तो देखिए
हम पत्थरों को प्यार सिखाते रहे हर रोज़

उसने तो एक रोज़ रोके रस्म निभा दी
हम अपनी सिसकियों को छुपाते रहे हर रोज़

आता है उन्हें हमें सताने का सलीका
नज़रे मिला के ‘नज़र’ चुराते रहे हर रोज़

नज़रे हैं उसकी तरकश का सबसे अचूक तीर
उस तीर को कमां पे चढाते रहे हर रोज़

यह उनकी आशिनाई की ही एक अदा थी
वोह प्यार का एहसान जताते रहे हर रोज़

खुद सो रहे हैं मखमली बिस्तर पे तभी से
हमें ख्वाब के बहाने जगाते रहे हर रोज़

कमज़ोरी मेंरी उनके जबसे रूबरू हुई
वोह ‘मुस्करा’ के ज़हर पिलाते रहे हर रोज़

- शाहनवाज़ 'साहिल'




Keywords:
Bekhudi, Gazal, Ghazal, बेखुदी, ग़ज़ल

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खानदानी पेशा जिसे सुन कर रूह भी कांप उठे!

आज मनुष्य जिस तेज़ी से विकास के पैमाने तय कर रहा है, उसी तेज़ी से इसका चरित्र गिरता जा रहा है। आज के युग में जहां पैसा ही भगवान नज़र आ रहा है, उसे देखकर लगता है कि दुनिया का अंत समीप है। आधुनिकता के इस युग में पैसे कमाने की होड़ में यू तो हर एक किसी दूसरे का शोषण करने में प्रयासरत है, लेकिन आज के युग में भी सबसे अधिक शोषण का शिकार हमेशा से शोषित होती आयी नारी ही है। कहीं उन्हें सरेआम फैशन की दौड़ में लूटा जाता है तो कहीं देह व्यापार की अंधी गली में धकेल दिया जाता है।

हद तो तब होती है, जब उनके अपने माता-पिता, चाचा, भाई, चाचा जैसे सगे रिश्तेदार ही महिलाओं को इस दलदल में फंसने पर मजबूर कर देते हैं। पूरे-पूरे खानदान और गांव के गांव देह व्यापार के धंधे में शामिल हो जाते हैं। मानवाधिकार संगठन तो हमेंशा से ही आवाज़ उठाते आए हैं कि भारत के कई जातिसमूह देह व्यापार को खानदानी पेशा बना कर परिवार की महिलाओं का शोषण करते है। आंकड़ो के मुताबिक भारत के देह व्यापार का 20 से 25 प्रतिशत हिस्सा पारिवारिक देह व्यापार की देन है. आज बेडिया और बांछड़ा समाज जैसी कई जनजातियों के उदहारण सबके सामने हैं.

देह व्यापार के धंधे में जल्द से जल्द झौंकने के चक्कर में कम उम्र लडकियों को "आक्सीटासिन" जैसी दवाइयों के इंजेक्शन लगाए जाते हैं। जिससे उनके शरीर के हार्मोन बिगड़ जाते हैं और वह 11-12 साल की उम्र में ही देह व्यापार में उतार दी जाती हैं। आपको बताते चलें कि "आक्सीटासिन" वह इंजेक्शन है जो भैंसो को अधिक तथा जल्दी दूध देने के लिए तथा मूर्गियों को जल्दी बड़ा बनाने के चक्कर में लगाए जाते हैं। ऐसे इंजेक्शन से अक्सर शरीर के हार्मोन बिगड़ जाते हैं, जो कि बाद में कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों का कारण बनते हैं। सबसे अधिक हैरत की बात तो यह है कि खुले आम ऐसे घृणित काम होते हैं और प्रशासन को इसकी खबर भी नहीं लगती है। या फिर खबर ना लगने का नाटक किया जाता है?

अक्सर कम उम्र की लड़कियों को अगवा करके ऐसी जगहों पर ले जाया जाता है। ताकि बड़ी होकर उन्हें भी पैसे की हवस के चलते देह व्यापार में धकेला जा सके। कम उम्र से ही परिवार में पलने के चक्कर में किसी लड़की को यह पता ही नहीं होता कि वह कहीं से अगवा करके लाई गई थीं और वह स्वयं को परिवार का ही हिस्सा समझती है। साथ ही साथ बचपन से ही उनके यह दिमाग में डाला जाता है कि यह बुरा कर्म नहीं बल्कि उनका पारिवारिक कार्य है।

यह तथ्य तब सामने आया जब दिल्ली से अगवा 3 से 5 वर्ष की उम्र की बच्चियों के सुराग तलाशते हुए दिल्ली पुलिस की एक टीम राजस्थान के अलवर ज़िले के दो गांवों में पहुंची, इन गांवो का सच देखकर उनके होश उड़ गए। लड़कियों की बरामदगी के साथ ही एक ऐसा घिनौना सच भी सामने आ गया जिसे सुन कर हैवानियत भी कांप उठे। दोनों गांवों के अधिकतर लोग अपनी स्वयं की बेटीयों के साथ-साथ अगवा करके दूर-दराज़ से लाई गई लड़कियों के द्वारा देह व्यापार का अंतर्राज्जीय और अंतर्राष्ट्रीय कारोबार चला रहे थे।

आखिर इस हैवानियत की कोई हद भी है? क्या अब भी हमें इस पर विचार नहीं करना चाहिए कि यह उपभोकतावाद और अधर्म की दौड़ हमें कहा ले जाकर छोड़ेगी?

-शाहनवाज़ सिद्दीकी



Keywords:
Prostitution, Women, देह व्यापार, शोषण

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दिल्ली ब्लॉगर्स सम्मेलन: मेरी नज़र से

दिल्ली और बाहर से आए हुए ब्लॉगर्स के मिलन से शुरू हुए दिल्ली ब्लॉगर्स सम्मेलन का अंत एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण मोड पर समाप्त हुआ। जहां सारे ब्लॉगर्स श्री अविनाश वाचस्पति और श्री जय कुमार झा की इस राय पर एक मत थे कि एक ऐसा संगठन बनना चाहिए जो ना केवल ब्लॉग लेखकों के लिए काम करे बल्कि साथ ही साथ सामाजिक ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए भी लेखकों की भूमिका तैयार करे। एक सदस्य की राय थी कि ब्लॉगस्पाट अथवा डोमेन पंजिकरण करा कर संगठन का अधिकृत वेब प्रष्ठ भी बनाया जाना चाहिए। वहीं कई दूसरें सदस्यों की राय थी कि पहले संगठन का उद्देश्य तय होना चाहिए। अर्जुन को मछली की आँख ही नज़र नहीं आएगी तो उसका तीर भी लक्ष्य रहित रहेगा। एक सदस्य ने सबके सामने संगठन के कुछ उद्देश्यों को भी लक्षित किया।

आज अधिकतर हिन्दी ब्लाक लेखकों के लेखन का उद्देश्य हिन्दी भाषा और समाज का विकास ही है। विश्व का कोई भी देश अपनी भाषा और संस्कृति के बिना विकास की राह में आगे नहीं बढ़ पाया है। लेकिन हमारे देश की यही विडंबना है कि हम अपनी भाषा को महत्त्व ना देकर अंग्रेज़ी जैसी भाषा के सहारे आगे बढ़ना चाहते हैं। हालांकि विश्व भाषा का दर्जा मिलने के कारणवश अंगेज़ी को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता है, लेकिन अपनी सशक्त भाषा के उपर महत्त्व दिया जाना अफसोस जनक है। मेंरे विचार से संगठन का सबसे अहम मक़सद हिन्दी और सामाजिक विकास होना चाहिए। इस विषय पर ही मशहूर कार्टनिस्ट श्री इरफान ने बताया कि किस तरह उन्होने बिजली कम्पनी के तेज़ दौड़ते मीटरों के द्वारा अधिक बिल दिए जाने के मुद्दे पर अकेले ही संघर्ष किया। आज ऐसे सामाजिक संघर्षों के लिए एकजुटता की आवश्यकता है।

मनोवैज्ञानिक स्तर पर देखा जाए तो पता चलता है कि कोई भी मनुष्य जब किसी भी संगठन से जुड़ता है तो अपने आप उसके अंदर ज़िम्मेदारी आ जाती है। क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए हर एक को समाज के प्रति जवाबदेह होना आवश्यक है। हालांकि लेखक तो जल प्रवाह की तरह होता है जो आवेग के साथ और अविकल बहता है। उस पर किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है और ना ही लगना चाहिए। परंतु लेखन प्रतिबंधों के साथ ना सही ज़िम्मेदारी के साथ तो होना ही चाहिए। कलम की धार तलवार की धार से भी तेज़ होती है और इसका वार किसी बड़े से बड़े विस्फोट से भी तेज़ होता है, इसलिए इसका प्रयोग भी सही दशा और दिशा में होना आवश्यक है।

ना केवल सामाजिक स्तर बल्कि ब्लॉग जगत में भी अनेकों मुद्दे एकजुटता की आवश्यकता दर्शाते हैं। श्री खुशदीप सहगल का विचार था कि ब्लाग जगत से नापसंद के चटके जैसे विकल्पों को समाप्त किया जाना चाहिए। जिसको भी लेख पर कोई आपत्ति हो वह टिप्पणी के माध्यम से अपनी बात रख सकता है। आज नापसंद का चटका दुर्भावनापूर्वक अच्छे लेखों को भी पाठकगण तक ना पहुंचने देने का हथियार भर बन कर रह गया है। मेरे विचार से अन्य क्षेत्रों के तरह यहां भी उपभोक्ता अर्थात पाठकों को ही निर्धारित करना चाहिए कि कौन से लेख अच्छा है अथवा कौन सा नहीं। आज ब्लॉग ही तो वह मंच है जहां पाठकों को भी अपनी बात रखने का अधिकार है।

सम्मेलन में श्री पवन चंदन, श्री एम वर्मा, श्री राजीव रंजन, श्री ललित शर्मा तथा संगीता पुरी सहित सभी सदस्यों ने अपनी बाते रखीं और अंत में श्री अजय कुमार झा जी ने कई महत्त्पूर्ण सुझाव दिए। वहीं व्यक्तिगत वार्तालाप के माध्यम से भी अनेकों लेखकों के संबंध प्रगाढ़ हुए। मैं स्वयं भी श्री जय कुमार झा, श्री विनाद कुमार पांडे, श्री सुलभ जायसवाल, श्री अंतर सोहिल जैसे कई ब्लागर्स से मिला, बल्कि मेरे लिए तो यह एक दम नया और विरला अनुभव था। 

सम्मेलन में ब्लॉग लेखकों के खान-पान की भी उचित व्यवस्था की गई थी। यह सम्मेलन मेहमान नवाज़ी में कई कदम आगे था। जहां एक तरफ जय कुमार झा जी ने अपनी मुस्कान के साथ और राजीव तनेजा जी ने गर्मजोशी से नए-पुराने लेखकों का स्वागत किया, वहीं राजीव जी के सुपुत्र माणिक ने सेवा भाव और विनादी स्वाभाव से सब का मन मोह लिया। उचित व्यवस्था के लिए पूरी प्रबंधन टीम बधाई की पात्र है।



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(क्योंकि यह मेरा पहला ब्लॉगर्स सम्मेलन था इसलिए सभी ब्लॉग लेखकों के नाम याद नहीं रख पाने के लिए क्षमा का प्रार्थी हूँ। मेरी तथा अन्य लोगो की सुविधा के लिए नीचे दिए फोटो में जो भी जिस व्यक्ति को जानता हो तो उसका नाम अवश्य इंगित कर दे।)



जिनको मैं पहचान पाया वह इस प्रकार हैं:

सबसे नीचे, बाएँ से: (1) श्री इरफ़ान, (2) श्रीमती संगीता पूरी, (3) श्री अविनाश वाचस्पति (4) डॉ. वेद व्‍यथित (5) ज्ञात नहीं (6) बागी चाचा और अंत में (7) सुलभ जायसवाल.

नीचे से दूसरी लाइन में: (1) सुश्री प्रतिभा कुशवाहा, (2) श्रीमती संजू तनेजा, (3) आशुतोष मेहता (4) श्री खुशदीप सहगल (बीच में गाढ़ी नीले रंग की कमीज़ में) (5) श्री नीरज जाटजी, ब्लॉग: मुसाफिर हूं यारों (टोपी लगाये हुये) तथा अंत में मैं शाहनवाज़ सिद्दीकी.

नीचे से तीसरी लाइन में: (1) चंडीदत्‍त शुक्‍ल (2) श्री ललित शर्मा, उनके बराबर में (3) श्री अजय कुमार झा, (4) श्री मयंक सक्‍सेना और अंत में (5) श्री नवाब मियां.

नीचे से चौथी लाइन में: (1) श्री योगेश गुलाटी, (2) डॉ. प्रवीण चोपड़ा, (3) श्री उमाशंकर मिश्र (लाल टी शर्ट में), (4) श्री राजीव रंजन, (5) श्री रतनसिंह शेखावत (ब्लॉग: ज्ञान दर्पण), (6) श्री मयंक, ब्लॉग: ताजा हवा (गले में गमछा डाले हुये) अंत में (7) श्री जय कुमार झा.

सबसे ऊपर आखिरी लाइन में: (1) श्री राजीव तनेजा, (2) श्री अंतर सोहिल, (3) ज्ञात नहीं, (4) श्री पवन चंदन, (5) श्री अजय यादव, इनके थोडा पीछे और श्री पवन चंदन के साथ (6) ज्ञात नहीं.

जिस नंबर के आगे "ज्ञात नहीं" लिखा है, उन्हें मैं पहचान नहीं पाया हूँ, आप पहचानते हैं तो अवश्य बताइए। अगर त्रुटीवश किसी को पहचानने में गलती हो गयी हो तो कृपया उसे भी इंगित कर दें। धन्यवाद!

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दिल्ली की ब्लॉगर्स मीट, ब्लॉग जगत में छा गई!

दिल्ली की ब्लॉगर्स मीट

ब्लॉगर सम्मलेन की हर बात निराली है,
मैं रात भर ख्वाब में भी वहीं था,
पत्नी बोली......
उठो सुबह होने वाली है.

सुबह कार्यालय जाना था,
वर्ना सम्मलेन में ही खोया रहता,
सम्मलेन का मज़ा लेता,
लोगो को दिखाने के लिए,
मज़े से सोया रहता.

वक्ताओं की भी वहां हर अदा निराली थी,
खाने के लिए भी सबने महफ़िल जमा ली थी,
समौसे, पकौड़े के साथ पीते रहे कोका-कोला.
वहां तो कुछ बोल न पाया,
लेकिन ख्वाबों में खूब बोला.

अविनाश जी से कहते रहे,
आपका प्रयास सफल है.
और झा जी से बोले,
अच्छे सम्मेलनों की
सफलता तो अटल है.

नापसन्दी चटका
अब बंद होना चाहिए,
जिसने टांग ही खींचनी है,
उसे टिप्पिया के कहना चाहिए.

खुशदीप सहगल जी की,
इस बात में बहुत दम था,
लगता है चाय में दूध थोडा ज्यादाह
और पानी कम था.

राजीव जी और माणिक की
मेहमान नवाजी दिल को भा गई,
और दिल्ली की ब्लॉगर्स मीट,
पुरे ब्लॉग जगत में छा गई!

-शाहनवाज़ सिद्दीकी





Keywords:
Hindi Kavita, Delhi Bloggers Meet, हिंदी कविता

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गज़ल: इक पैकर-ए-जमाल नज़र आ रहा था वोह



इक पैकर-ए-जमाल नज़र आ रहा था वोह
जोड़े में लाल, ‘लाल’ नज़र आ रहा था वोह

हर ज़ुबां पर तारीफ थी रूख्सार-ए-यार की
'साहिल' तेरा अशआर नज़र आ रहा था वोह

औरों की तरह हम भी खिल्द-ए-ख्वाह हैं यारो
मेरी नज़र में खिल्द नज़र आ रहा था वोह

महफिल में सब मसरूफ थे मेरी ऐबज़ूई में
मायूस सा मगर क्यों नज़र आ रहा था वोह


इल्म दरसे-नसीहत का हमें याद कराके
रू-पोश धीरे-धीरे होता जा रहा था वोह

चेहरे से तो खुशहाल नज़र आ रहे थे हम
आसूदगी दिल से मिटाता जा रहा था वोह

मन्ज़र ज़रा नाशादे-मुसल्लत था जनाज़े पर
पर खुशी इश्क़-ए-फराग़त मना रहा था वोह

हर निगाह घूमती थी मुक़ामें-अय्यार को
इतना हसीन यार नज़र आ रहा था वोह

- शाहनवाज़ सिद्दीकी 'साहिल'







शब्दार्थ:
पैकर = टुकड़ा
जमाल = ऐसा हुस्न / ख़ूबसूरती जिसे जिस कोण से देखो तो पहले से और भी अधिक खुबसूरत नज़र आए.
लाल = एक कीमती पत्थर का नाम
खिल्द-ए-ख्वाह = स्वर्ग चाहने वाला
खिल्द = स्वर्ग, जन्नत
मसरूफ = व्यस्त
ऐबज़ूई = ऐब निकलना, बुराई करना
इल्म = ज्ञान
दरसे-नसीहत = अच्छी बातों का पाठ
रू-पोश = गायब
आसूदगी = संतोष
नाशाद = दुःख
मुसल्लत = प्रभावी
फराग़त = समाप्त (होना / करना)
मुक़ाम = स्थान, पद इत्यादि
अय्यार = चालाक / बेवक़ूफ़ बनाने वाला / रूप बदलने वाला





keywords: gazal, hindi, urdu Ghazal

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भ्रष्टचार की जड़

भ्रष्टाचार हमारे बीच में से शुरू होता है, हम अक्सर अपने आस-पास इसे फलते-फूलते हुए देखते हैं। बल्कि अक्सर स्वयं भी किसी ना किसी रूप में इसका हिस्सा होते हैं। लेकिन हमें यह बुरा तब लगता है जब हम इसके शिकार होते हैं। हम नेताओं, भ्रष्ट अधिकारी इत्यादि को तो कोसते हैं, लेकिन हम स्वयं भी कितने ही झूट और भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं? सबसे पहले तो हमें अपने अंदर के भ्रष्टाचार को समाप्त करना होगा। शुरुआत अपने से और अपनों से हो तभी यह भ्रष्टाचारी दानव समाप्त हो सकता है। भ्रष्ट नेता या अधिकारी कोई एलियन नहीं है, बल्कि हमारे बीच में से ही आते हैं, इस समाज का ही हिस्सा हैं। जब कोई छात्र लाखों रूपये की रिश्वत देकर दाखिला पाता है, उसके बाद फिर से रिश्वत देकर नौकरी मिलती है, तो ऐसा हो नहीं सकता कि वह नौकरी मिलने के बाद भ्रष्टाचार में गोते ना लगाए। अगर कोई शरीफ भी होता है, और हालात की वजह से रिश्वत देता है तो शैतान उसको समझाता है कि तू रिश्वत दे रहा है, जब तेरी बारी आएगी तो रिश्वत मत लेना। नौकरी लगने पर सबसे पहले वह सोचता है कि अपने पैसे तो पूरे कर लूँ, फिर धीरे-धीरे उसे आदत ही लग जाती है। क्योंकि एक बार हराम का निवाला अन्दर गया तो ईश्वर का डर अपने-आप बहार आ जाता है।

आज हर छोटे से छोटा तथा बड़े से बड़ा व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त है, चाहे वह बिना मीटर के ऑटो रिक्शा चलने वाला हो, या मिलावटी दूध या कोई और खाद्य पदार्थ बेचने वाला हो या फिर किसी सरकारी अथवा गैर सरकारी पद पर आसीन व्यक्ति। यहाँ तक कि लोगो ने धर्म को भी अपना व्यवसाय बना लिया है। हर दूकानदार किसी भी वस्तु को बेचने के लिए हज़ार तरह के झूट बोलता है। यदि उसने कोई सामान बाज़ार से ख़रीदा है 15 रूपये में तो वह बताएगा 20 रूपये, इस पर यह जवाब कि अगर झूट नहीं बोलेंगे तो काम कैसे चलेगा। यह नहीं सोचते कि जो ईश्वर अरबों-करोडो जानवरों, पेड़-पौधों को खिला कर नहीं थका, वह क्या एक इंसान को खिलाने से थक जाएगा?

असल बात यह है कि पाप पर होने वाले ईश्वर के गुस्से का डर हमारे अन्दर से निकल गया है। जिस दिन यह डर बिलकुल ही समाप्त हो जाएगा, दुनिया का अंत हो जाएगा। पश्चिम ने अध्यात्म की तरफ लौटना शुरू कर दिया है, अगर हम भी समय रहते जाग जाएँ तो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर भारत बना सकते हैं। वर्ना भ्रष्टाचार में लिप्त दीमक लगा भारत छोड़कर जाएँगे और वह इसे और कमज़ोर ही बनाएँगे।

- शाहनवाज़ सिद्दीकी

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जनसत्ता में "प्रेम रस"





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दो दिल जुदा हुए हैं




दो दिल जुदा हुए हैं, बड़ी दूर जा रहे हैं,
आकर कोई तो रोक ले, सदा लगा रहे हैं।

दुनिया की साज़िशें हैं, बड़ी मार-काट की,
तूफान का समय है, दिए टिम-टिमा रहे हैं।

षणयंत्र रचे जा रहे, हर कूचा-ए-गली में,
दानिशवर बैठे हुए मातम मना रहे है।

जहां प्यार की उंमग थी वहां खौफ है तारी,
रिश्तों का खून करके वोह सेजे सजा रहे हैं।

खेतों को बाड़ लुटे तो तूफाँ की क्या ज़रूरत,
रखवाले लूटने की जो अदा निभा रहे हैं।

भेड़ो की खाल में है हर तरफ यह भेड़िये,
खुद शांति के नामवर आतंक मचा रहे हैं।

इक साथ खेल-कूद कर हुए थे जो जवां
वही आज अलग अपनी बस्तियां बसा रहे हैं।

नफरत का साथ छूटे तो कुछ सिलसिला चले,
हर तरफ तो नफरत के गीत लिखे जा रहे हैं।

यह डोर टूट गई, तो फिर जुड़ ना पाएगी,
इसे थामने को हाथ बहुत थोड़े आ रहे हैं।

धीमी ही सही आस की यह लौ जली तो है,
दिवाने आज दरिया पे सीने अड़ा रहे हैं।

कुछ बुलबुलें चलीं है, समंदर पे पुल बनाने,
कुछ इश्क के परवाने शहर जगमगा रहे हैं।

- शाहनवाज़ सिद्दीकी "साहिल"


Keywords:
Ghazal, Heart, Hindi Kavita, Love, Terrorism, हिंदी ग़ज़ल

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इंसानियत पर हैवानी हमला

एक तरफ तो दिल्ली सरकार कॉमन-वेल्थ खेलों के नाम पर तरक्की के ख्वाब दिखा रही है, वही सिक्के का दूसरा पहलु यह है कि आज दिल्ली जैसे बड़े शहर में पैसे और रसूख के बल पर कुछ भी किया जा सकता है. जहाँ एकतरफ विदेशी मेहमानों की आवभगत के लिए करोडो रुपयों को पानी की तरह बहाया जा रहा है, वहीँ सरकार की नाक के नीचे अपराधिक छवि के लोग अक्सर रसूख रखने वाले लोगों की छत्रछाया में ही पल-बढ़ रहे हैं. कहीं गरीब लोग अमीरों की महंगी गाड़ियों के द्वारा कीड़े-मकोडो की तरह कुचले जाते हैं तो कहीं अपराधियों का विरोध करने पर उनकी दहशत का शिकार हो जाते हैं. हद तो तब होती है, कि आम आदमी की सरकार होने का दावा करने वाली हमारी देश की सरकारे सब कुछ देखते हुए भी आँख मूंद कर बैठी रहती हैं.

घटना दिल्ली के नरेला इलाके की है, जहाँ कुछ अज्ञात बदमाशों ने रात्रि तक़रीबन 8.30 बजे शांति अपार्टमेन्ट, पॉकेट-13 में रहने वाले श्री वैश और उनके परिवार पर जानलेवा हमला कर दिया. उनका कसूर केवल इतना था, कि उन्होंने अकेले ही कुछ अपराधिक तत्वों के खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत की थी. अब होना तो यह चाहिए था कि हमारी सुरक्षा एजेंसियां उनका साथ देते हुए, हमलावरों के खिलाफ कार्यवाही करती, परन्तु सूत्रों से पता चला कि उनकी सुनवाई कहीं भी नहीं हुई है. वह घायल अवस्था में पीतमपुरा के मेक्स अस्पताल में भर्ती हैं.

अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने की वजह से उनके ऊपर पिछले वर्ष भी हमला हुआ था. अगर सुरक्षा एजेंसियां सही समय पर कार्यवाही करती तो इस जानलेवा हमले को टाला जा सकता था. लेकिन अपराधिक तत्व खुले आम घूमते रहे और श्री वैश और उनके परिवार का घर से निकलना दूभर बना रहा. किसी तरह की कार्यवाही ना होने पर ही ऐसे अपराधिक तत्वों को बढ़ावा मिलता है. इस केस में भी यही हुआ, कुछ अज्ञात बदमाशों ने अचानक उनपर हमला कर दिया. जब तक उनका परिवार कुछ समझ पता तब तक तो हमलावर उनको बुरी तरह घायल कर चुके थे. लेकिन ऐसा नहीं है कि दुनिया से इंसानियत समाप्त हो गयी है, संवेदनहीनता के इस दौर में भी अक्सर कुछ हाथ मदद के लिए उठ ही जाते हैं. जैसे ही पड़ोसियों को घटना का पता चला उन्होंने जल्दी से उनको अस्पताल पहुँचाया ताकि एक जीवन समाप्त होने से बचाया जा सके.

लेकिन क्या यह फ़र्ज़ केवल उनके पड़ोसियों का ही है? क्या हर पढने-सुनने वाले का यह फ़र्ज़ नहीं है कि इंसानियत को बचाया जाए? क्यों नहीं हम ऐसे लोगो की मदद करते हैं जिनको हमारी मदद की आवश्यकता होती है? क्या हम अपने ऊपर ऐसी दुर्घटनाओं के घटने का इंतज़ार करते हैं? आखिर हम कब जागेंगे?

-शाहनवाज़ सिद्दीकी



विस्तृत जानकारी एवं मदद के लिए निम्नलिखित लेख पढ़ें:
http://jantakifir.blogspot.com/2010/05/blog-post_17.html

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ग़ज़ल: कश्मीर


दुनिया का हुस्न था कभी और प्यार की बस्ती,
कुम्हला गई है आज यहा फूलों की मस्ती।

कुछ लोग मर रहे हैं, कुछ लोगों की खातिर,
कुछ रूहें फिर रहीं है यहां राह भटकती।

कोई शहर छोड़ गया है, कोई ज़िंदगी ‘साहिल’,
कुछ रह गई हैं आंखे यहां राह को तकती।

जन्नत का बाग़ नाम था कश्मीर का कभी,
अपनो ने ही मिटा ली आज अपनी ही हस्ती।

कई तीर चले कमां छोड़, सीना तान के,
रुक-रुक के गिर रहीं है कई लाशे तड़पती।

तकदीर की तो क्या कहें, तदबीर ही सिमट गई,
हर दिल में घर किए हैं कई आंहे सहमती।

जीने के लिए आते थे बीमार यहां पर,
अब मौत हो गई है यहां देखो तो सस्ती।

- शाहनवाज़ सिद्दीकी "साहिल"



Keywords:
Ghazal, Kashmir, poem, hindi

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इश्क़-ऐ-हकीकी


इश्क़-ऐ-हकीकी

है चाहत इश्क़, यह प्यारा है इश्क़
सबब जीने का हमारा है इश्क़

मेरी हस्ती में यह वाबस्ता है मेरी हर शय का नज़ारा है इश्क़

दिलों में बसता है ढ़ूंढने से क्या हासिल
इस गोल सी दुनिया का किनारा है इश्क़

डूबते को तिनका भी नज़र आए साहिल
अंधेरी रात में जलता हुआ तारा है इश्क़

दिल तो खोया हुआ है कब से इसके पहलू में
हमने इस दिल में जबसे उतारा है इश्क़
तेरा बोला हुआ एक लफ्ज़ कयामत ला दे
और चाहत भरा पैगाम तुम्हारा है इश्क़

सिर्फ एहसास है पाकीज़ा खयालातों का
ये जाँ देकर भी जानेजाना गवांरा है इश्क़

कदम तो बढ़ते हैं सदा मंजिल के पाने को
कभी जीता कभी तक़दीर का मारा है इश्क़
हम तो जाना इसे होटो से ही पढ़ लेते हैं
तेरे रूख्सार पर लिखा हुआ सारा है इश्क़

इसे बनाने में ज़रूर खुदा की मर्ज़ी है
अपने ईनाम से उसने ही सवांरा है इश्क़

ये एक पल नहीं सदियों में बनाया होगा
किसी अवतार ने फुर्सत से उतारा है इश्क़

- शाहनवाज़ सिद्दीकी



Keywords:
Gazal, Hindi, Poem, Love, इश्क़

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धार्मिक नियमों पर अंधविश्वास

अक्सर ही कहा जाता है कि धार्मिक नियमों को दिमाग की कसौटी पर कसे बिना आँख मूंद कर विश्वास कर लेना मानसिक गुलामी का प्रतीक है। क्योंकि यह विषय मनुष्य के विश्वास से संबधित है इसलिए इस पर कोई भी राय बनाने से पहले इसको मनोवैज्ञानिक कसौटी पर जाँचना आवश्यक है। मेरा यह मानना है कि हर कार्य के गूढ़ में जाना हर एक व्यक्ति के लिए संभव नहीं होता है। कयोंकि मनुष्य का स्वाभाव ही ऐसा बनाया गया है कि वह हमेशा पहले से बनी धारणा के हिसाब से ही कार्य को करता है और यह बात व्यवहारिक भी है। कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिन्हे समझने के लिए उसका विशेषज्ञ होना आवश्यक होता है। मनुष्य के मस्तिष्क का कार्य करने का तरीका यह है कि वह हर कार्य क्षेत्र के हिसाब से अपना आदर्श ढूंढता है और उसके लिए अपने दिमाग और तर्जुबे के साथ-साथ अन्य लोगों की राय को भी महत्त्व देता है। अब अगर वह किसी को भी उक्त कार्य क्षेत्र का आदर्श मान लेता है तो फिर उसके हिसाब से काम करता है। हाँ यह अवश्य है कि अगर किसी बात पर उसे संदेह होता है तो वह उसे संबधित व्यक्ति से मालूम कर लेता है।

इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं: हम जब भी अस्वस्थ होते हैं तो डॉक्टर से दवाई लेते हैं, लेकिन कभी भी दवाई के बारे में पूर्ण जानकारी लेना उचित नहीं समझते हैं, क्योंकि ऐसा करना हर एक के लिए आसान नहीं होता है। इसके लिए उक्त विषय के विशेषज्ञ की सलाह ही सबसे उचित मानी जाती है। क्योंकि उसने विषय को समझने के लिए उचित शिक्षा ग्रहण की होती है, जिसे ग्रहण करना हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं होता है। इसका एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि हम रोज़मर्रा के जीवन में हज़ारों कार्य करते हैं और हर कार्य के लिए अलग-अलग विशेषज्ञ होता है। इसलिए मनुष्य हमेशा ही उस विषय को परखने की जगह उसके विशेषज्ञ को परखता है। हज़ारों डॉक्टरों में से किसी एक पर ही उसका विश्वास जमता है, जब विश्वास जम जाता है तो उसके कथनुसार ही वह दवाईयां लेता है। हालांकि जब विश्वास डगमगाता है तब दूसरे डॉक्टर के पास जाया जाता है, लेकिन इस स्थिति में भी स्वयं डॉक्टर बनने की कोशिश नहीं की जाती है। यह उदाहरण जीवन की हर परिस्थिति पर पूर्णतः सही उतरता है।

ज़रा सोचिए अगर हर कार्य की पूरी जानकारी लेकर ही कार्य करने का नियम अपना लिया जाए तो क्या होगा? सुबह जब कार्यालय के लिए निकलेंगे तो वाहन को चलाने से पहले उसकी जानकारी लेनी पड़ेगी। मतलब कौन सा पेंच कहां लगा है? ब्रेक कैसे लग रहे हैं? स्टीयरिंग कैसे घूम रहा है? अथवा पहिए कैसे चल रहे है? इत्यादि। क्या हर एक को कार की पूरी इंजिनियरिंग की जानकारी होना आवश्यक है अथवा कार बनाने वाली कंपनी और उसके उत्पाद पर विशेषज्ञों की सलाह को महत्व देकर या अपने तर्जुबे के अनुसार कार खरीद लेना ही अधिक समझदारी का कार्य है? इसी तरह कम्यूटर, मोबाईल जैसे रोज़मर्रा में काम आने वाले उपकरणों को खरीदते अथवा ठीक कराते समय या इसी तरह अन्य कार्यों को करते समय भी उनकी सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करना व्यावहारिक ही नहीं है।

ठीक यही बात धार्मिक नियमों पर भी लागू होती है, हर एक नियम का विश्लेषण करना तथा मस्तिष्क की कसौटी पर कसना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं है। इस क्षेत्र में भी मनुष्य दूसरें क्षेत्रों की तरह अपने मस्तिष्क का प्रयोग करके किसी एक विशेषज्ञ को अपने आदर्श के रूप में  स्थापित करता है और उसके अनुसार अपने धार्मिक अनुष्ठान पूर्ण करता है। हाँ अगर किसी कारणवश उक्त आदर्श से विश्वास डगमगाता है, तब फिर से अपने मस्तिष्क का प्रयोग करके सही आदर्श को चुनना चाहिए। इसी तरह अगर आस्था पर कोई प्रश्न सामने आए तो अवश्य ही उसका उत्तर खोजने की कोशिश करनी चाहिए।

- शाहनवाज़ सिद्दीकी



Keywords:
Religion, Rules, धार्मिक नियम

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नानी का आंगन


नानी का आंगन


वो नानी का आंगन, वो बातें बनाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।

वो 'हाथ के पंखे' की बात अलग थी,
अजब था सूकूँ, वो बहार अलग थी,
वो नानी का पंखा हिला के सुलाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।

वो सावन का मौसम, बहारो का मौसम,
वो मेंढक पकड़ना, वो किचड़ में चलना,
वो बारिश के पानी में किश्ती चलाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।

वो तकियों पे तकिया लगाने की तरकीब,
वो बचपन की थी कुछ अजब सी ही तरतीब,
वो तकियों पर चढ़ना, छलांगे लगाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।

उन तकियों की सीढ़ी बनाता था अक्सर,
मैं नानी को अपनी सताता था अक्सर,
यूँ मिट्टी की हांडी से मक्खन चुराना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।


वो मिट्टी के चूल्हे पे खाना बनाना,
वो नानी का खिचड़ी पे मक्खन लगाना,
वो प्यारे से हाथों से मुझको खिलाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।


वो मिट्टी की खूशबू, खलियानो की रौनक
वो सरसों के फूलों की मोहिनी सूरत
लगता था जन्नत यहीं है, यहीं है!
उस जन्नत की मस्ती में यूँ डूब जाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।


वो नानी का आंगन, वो बातें बनाना,
कहां भूल पाता हूँ गुज़रा ज़माना।


- शाहनवाज़ सिद्दीकी



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Hindi Poem, Hindi Nazm

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दिल्ली का ट्रैफिक!

घर से अपना चेतक स्कूटर लेकर हम दिल्ली के लिए निकल पड़े। माताजी ने बहुत समझाया कि बेटा बस से चला जा, लेकिन हमने सोचा कि स्कूटर से जाएंगे तो ज़रा रौब पड़ेगा। जैसे-तैसे बार्डर पहुंच गए, परन्तु जैसे ही प्रवेश करने की कोशिश की यातायात पुलिस निरीक्षक ने रोक लिया। सारे पेपर चेक करने के बाद भी जब कुछ नहीं मिला तो लाईट चैक करने लगे। "क्या पहली बार दिल्ली आए हो?" मैंने कहा "नहीं जी आता रहता हूँ"। "फिर भी बिना लाईट की गाड़ी चला रहे हो।" मैंने कहा "अभी तो दिन है, लाईट की क्या आवश्यकता है? घर पहुंच कर ठीक करवा लूंगा"। वह बोले "बेटा रास्ते में रात हो गई तो? मैं क्या वहां पर लाईट चैक करने आउंगा?" फिर बोले कि "पेड़ के पास जो पानी वाला खड़ा है उसे एक हरी पत्ती देकर आ जाओ।" समझ में तो कुछ आया नहीं, सोचा चलो पानी वाले से ही मालूम कर लेता हूं। पानी वाले ने बताया कि भैया हरी पत्ती का मतलब 100 रू वर्ना स्कूटर ज़ब्त। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाया और भगवान का नाम लेकर आगे चल दिया।

कुछ दूर चलने पर चैक पर लाल बत्ती मिली, हम भी खड़े हो गए। जैसे ही बत्ती हरी हुई, हमने भी चलने के लिए अपने स्कूटर में किक मारी और चलने लगे। मगर यह क्या सामने से एक बाईक धनधनाती हुई हमारे स्कूटर को ज़मीदौज़ करते हुए निकल गई। शायद उस भले आदमी को अपनी लाल बत्ती दिखाई नहीं दी। बड़ी मुश्किल से अपनी चोटों पर करहाते हुए हम भी उठे, अपने प्यारे स्कूटर का हैंडल सीधा किया। अपनी शर्म को छुपाते हुए स्कूटर को किसी तरह स्टार्ट किया और आगे चल दिए।

अभी थोड़ी दूर ही चला था कि एक कैब ड्राइवर हमारे बाएं हाथ की तरफ से हमें ओवर-टेक करते हुए और हमें गालियां देते हुए बड़ी तेज़ी से निकला। "गाड़ी चलानी नहीं आती, तो फिर दिल्ली में आते ही क्यों हों"। हमने बड़ी मुश्किल से अपने स्कूटर को संभाला, लेकिन हज़ार बार सोचने पर भी समझ में नहीं आया कि आखिर हमारी गलती क्या थी। सोचा कि शायद उसने हौर्न दिया होगा और हमें सुनाई ना दिया हो। फिर बेचारा मजबूरी में उलटे हाथ की तरफ से निकलनें के लिए मजबूर हुआ हो! मगर ताऊ तो कहतें हैं कि "तेरे कान बहुत तेज़ हैं, चींटी की आवाज़ भी सुन लेते हैं"। जब समझ के कुएं से पानी नहीं निकला तो हमने आगे चलने में ही भलाई समझी।

अल्ला-अल्ला करते हुए आईटीओ पहुंचे, तभी देखा कि एक कार सवार अपनी कार की रफ्तार के नशे में साईकिल सवार को नहीं देख पाया। वैसे भी गरीबों को देखता कौन है, उसने ही नहीं देखा तो क्या गुनाह किया? बेचारा सड़क पर पड़ा हुआ था और उसकी मदद करने वाला कोई नहीं था। मैंने लोगो से गुहार लगाई कि इसको किसी गाडी या रिक्शा में डालकर अस्पताल ले चलो। तभी एक चिल्लाया "अबे पागल हो गया है क्या? पुलिस के सवालों के जवाब कौन देगा? उलटे हम पर ही केस चल जाएगा।" मैंने कहा कि "भाई हम एक मरते हुए की जान बचा रहें है तो इसमें पुलिस क्यों सवाल करेगी?" एक व्यक्ति ने फिर वही सवाल किया जो दिल्ली में आने के बाद कई बार सुन चुका था, " यार! दिल्ली में नया आया है क्या?" मैंने सोचा कि "इसे कैसे पता चला?" फिर अपनी झेंप मिटाने के इरादे से कहा कि "नहीं भाई आता रहता हूँ" तभी एक तपाक से बोला "तब भी बेवकूफी की बातें कर रहे हो?" वह बेचारा पड़ा हुआ तड़प रहा था। तभी वहां से एक पुलिस की वैन गुज़री, भीड़ देखकर रूक गई। मुझे लगा कि शायद यह ही उसको अस्पताल पहुंचा देंगे। थोड़ी गुहार लगाने पर वह तैयार हो गए। जब पुलिस उसे लेकर चली गई तो मेरी सांस में सांस आई और मैने सोचा कि आगे चला जाए।

सड़क पर भीड़ कुछ जयादा ही थी, ऐसा लग रहा था जैसे कोई इनके पीछे पड़ा है या फिर सब के सब जल्द-से-जल्द कहीं दूर भाग जाना चाहते हैं। हर कोई, हर तरफ से गाडी ओवरटेक कर रहा था और मेरे लिया गाड़ी चलाना दूभर होता जा रहा था। सोचा कि दिल्ली जैसे बड़े शहर के शिक्षित लोग भी आखिर क्यों अशिक्षितों की तरह व्यवहार करते हैं? कुछ पलों की जल्दी के चक्कर में अपनी तथा औरों की जान को खतरे में डाल देते हैं। आज केवल दिल्ली में ही सड़क हादसों की वजह से हर साल हजारों लोग अपनी जान गवां देते हैं और कितने ही अपने शरीर के महत्वपूर्ण अंगो से हाथ गवां बैठते हैं। आखिर दिल्ली में बिला वजह ओवर टेकिंग समाप्त क्यों नहीं होती है? आखिर क्यों गाड़ी चलाने वाले अपनी लेन में नहीं चलते हैं? और सबसे बड़ी बात कि आखिर गाड़ी इतनी जल्दी में और गुस्से में क्यों चलाते हैं? दो मिनट की देर में मारने-मरने पर तैयार हो जाते हैं? क्या शहरों में मौत इतनी सस्ती हो गई है?

इन सवालों के साथ आखिर हम अपनी मंज़िल पर पहंच गए। लेकिन कितने लोग रोज़ाना अपनी मंज़िल को पहुंचते होंगे, कभी किसी ने सोचा है?


- शाहनवाज़ सिद्दीकी


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accident, Delhi, Traffic, Hindi Critics

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चूहें की महिमा और मुख्यमंत्री जी

सुबह आँख खुली और हमने टीवी का बटन ऑन कर दिया। सामने एक खबरिया चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज़ आ रही थी कि ‘मुख्यमंत्री जी को चूहें ने काटा’। देखिये कैसा कलयुग आ गया है, अब तक तो सिर्फ इन्सान ही बड़े लोगों को एहमियत देते हैं। परंतु अब तो चूहें जैसे तुच्छ प्राणी भी! हाँ नहीं तो। वैसे मैं मज़ाक कर रहा हूँ, चुहा तो महान प्राणी है। और आज कल तो इस प्राणी के महान अवतार ‘माउस’ के बिना कोई कम्यूटर भी नहीं चलता है। अगर चूहां ना होता, अररररर! मेंरा मतलब ‘माउस ना हो तो हम जैसे ब्लॉग छाप लिखइयों का कार्य कैसे चलता? हमारी रोज़ी-रोटी कैसे चलती? फिर खामाखां लक्ष्मी जी को कष्ट करना पड़ता!

हम डेली अपने पैर खुले छोड़ कर लेटते हैं, कभी-कभी तो चुहों के बिल में ही अपना पैर घुसा कर सोते हैं। और वहां बड़े लोग ऐसी रूम में मखमली बिस्तर पर और शानदार कम्बल में लिपट कर सोते हैं। इधर हम चूहें को खुली दावत देते हुए सोते हैं और उधर बड़े लोग उनके खिलाफ पूरा बंदोबस्त करके। फिर भी चूहें महाराज के द्वारा उन्हें ही एहमियत। मुझे तो इसमें किसी साजिश की बू आ रही है।

हम पर तो अब तक गणेश जी के सबसे करीबी की हम पर नज़र नहीं पड़ी। वो भी पहुँच गए पहुंच गए बड़े लोगों के पास। आखिर मुझ जैसे फक्कड़ के घर में उन्हे खाने को क्या मिलता? अब बड़े लोगों की तो बात ही अलग है, बड़े लोग हैं तो उनके लिए खाना भी बड़ा अच्छा। हमारे यहां तो उन्हे बची हुई सूखी रोटी ही मिलती होगी और वह भी कभी-कभी, क्योंकि अक्सर तो वह हमें ही नहीं मिलती। हाँ उनके यहां अवश्य ही देसी घी के लड्डू मिल जाते होंगे। फिर वहां हिसाब रखने वाला भी कौन होगा कि लड्डू गायब कैसे हो गए, हमें तो पता रहता है कि हमने दो रोटी बनाई थी और उसमें से आधी बचा दी थी कि सुबह उठ कर खा लेंगे। परंतु जब सुबह वह रोटी नहीं मिलती है तो उसके लिए खोजबीन शुरू कर देते हैं। आखिर इतनी मुश्किल से रोटी कमाई जाती है। अब अखबार के लिखईया तो हैं नहीं कि डेली लेख अखबारों की शान बनें। ब्लॉग में ही तो लिखते हैं, कौन छापता है इसे अपने अखबार में? फिर यहां कोई एड-वैड भी नहीं मिलता। कभी-कभार हॉट लिस्ट में आ जाता है हमारा लेख, लेकिन अक्सर ही हमारे दुश्मन (हमसे जलने वाले दुसरे धुरंधर लेखक गण), हमारे लेख के छपते ही ताड़ लेतें हैं। और कहीं दूसरे ना पढ़ लें इसलिए धड़ा-धड़ नापंसद के चटके लगा देते हैं। बस फिर क्या लेख एग्रीगेटर से गायाब! बस यही कहानी है हमारी। कभी-कभार एक-आध कवि सम्मेलन में कोई बुला लेता है तो कुछ दान-दक्षिणा मिल जाती है, उसी से हम अपनी जीविका चला लेते हैं। भला हम जैसे फक्कड़ों के यहां क्यों कोई चूहां, मच्छर, छिपकली जैसे जंतु घूमेंगे?

अब जब खाते कम हैं तो पक्का है कि शरीर में खून भी कम ही होगा ना। बड़े लोगों की तरह थोड़े ही कि बदन में खून लबा-लब भरा रहे और महाशय अस्पताल में खून की कमीं के बहाने से मुफ्त में अपना ईलाज कराने के बहाने आराम करते रहें, चाहे अदालतें उनका कितना ही इंतज़ार करती रहे। और जब हमें कभी अस्पताल की ज़रूरत पड़ जाए तो जनरल बैड भी खाली नही मिल सकते। उसमें भी ले-दे कर काम चलाना पड़ता है।

खैर चूहा तो चूहा है, मनमौजी है! जब जी चाहेगा, जहाँ जी चाहेगा, वहीं जाएगा।

- शाहनवाज़ सिद्दीकी

(यह व्यंग्य "हरिभूमि" समाचार पत्र में दिनांक 12 जून 2010 को "चूहा तो महज़ प्राणी है" नमक शीर्षक के साथ छपा है.)


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