ग़ज़ल: प्यार की है फिर ज़रूरत दरमियाँ

प्यार की है फिर ज़रूरत दरमियाँ 
हर तरफ हैं नफरतों की आँधियाँ 

नफरतों में बांटकर हमको यहाँ 
ख़ुद वो पाते जा रहे हैं कुर्सियाँ 

खुलके वो तो जी रहे हैं ज़िन्दगी 
नफ़रतें हैं बस हमारे दरमियाँ 

जबसे देखा है उन्हें सजते हुए 
गिर रहीं हैं दिल पे मेरे बिजलियाँ 

और मैं किसको बताओ क्या कहूँ 
सबसे ज़्यादा हैं मुझी में खामियाँ 

आंखें, चेहरा सब बयाँ कर देते हैं 
इश्क़ को समझों नहीं तुम बेजुबाँ 

जब मुहब्बत का तेरा दावा है तो 
घूमता है होके फिर क्यों बदगुमाँ 

जो मेरा है वो ही तेरा है अगर 
किसको देता है बता फिर धमकियाँ 

- शाहनवाज़ सिद्दीकी 'साहिल' 

बहर: बहरे रमल मुसद्दस महज़ूफ़ 
अरकान: फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन 
वज़्न: 2122 - 2122 - 212 

Read More...
 
Copyright (c) 2010. प्रेमरस All Rights Reserved.