ग़ज़ल: मिलने-जुलने का ज़माना आ गया

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  • Shah Nawaz
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  • जब भी तेरा ज़िक्र महफिल में हुआ
    मिलने का दिल में बहाना आ गया

    उसने जो देखा हमें बेसाख़्ता
    मायूसी को मुस्कराना आ गया

    आप क्यों बैठे हैं ऐसे ग़मज़दा
    मिलने-जुलने का ज़माना आ गया

    उसने जो महफ़िल में की गुस्ताखियाँ
    हर इक को बातें बनाना आ गया

    हम ज़रा सा नर्म लहज़ा क्या हुए
    दुनिया को आँखे दिखाना आ गया

    अभी तो सोलह भी पूरे ना हुए
    आशिक़ों का दिल चुराना आ गया

    -शाहनवाज़ 'साहिल'

    फ़िलबदीह मुशायरा 042 में लिखी यह ग़ज़ल

    4 comments:

    1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-01-2016) को "विषाद की छाया में" (चर्चा अंक-2230) पर भी होगी।
      --
      सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
      --
      चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
      जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
      हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
      सादर...!
      डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    2. बहुत सुन्दर गजल ।

      आपके ब्लॉग को यहाँ शामिल किया गया है ।
      ब्लॉग"दीप"

      यहाँ भी पधारें-
      तेजाब हमले के पीड़िता की व्यथा-
      "कैसा तेरा प्यार था"

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    3. हम ज़रा नरम लहजा क्या हुए
      दुनिया को आँखे दिखाना आ गया .....👍वाह

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