मेंरी बेखुदी

Posted on
  • by
  • Shah Nawaz
  • in
  • Labels: ,
  • हम दिए मौहब्बत के जलाते रहे हर रोज़
    हम इश्क़ के महल को सजाते रहे हर रोज़

    मेरे मरने के बाद भी मुझे करते हैं परेशां
    वोह इसीलिए कब्र पर आते रहे हर रोज़

    मालूम न था परदेसी लौट कर नहीं आते
    हम ‘सदा’ वीरानों में लगाते रहे हर रोज़

    अब मेंरी बेखुदी का सलीका तो देखिए
    हम पत्थरों को प्यार सिखाते रहे हर रोज़

    उसने तो एक रोज़ रोके रस्म निभा दी
    हम अपनी सिसकियों को छुपाते रहे हर रोज़

    आता है उन्हें हमें सताने का सलीका
    नज़रे मिला के ‘नज़र’ चुराते रहे हर रोज़

    नज़रे हैं उसकी तरकश का सबसे अचूक तीर
    उस तीर को कमां पे चढाते रहे हर रोज़

    यह उनकी आशिनाई की ही एक अदा थी
    वोह प्यार का एहसान जताते रहे हर रोज़

    खुद सो रहे हैं मखमली बिस्तर पे तभी से
    हमें ख्वाब के बहाने जगाते रहे हर रोज़

    कमज़ोरी मेंरी उनके जबसे रूबरू हुई
    वोह ‘मुस्करा’ के ज़हर पिलाते रहे हर रोज़

    - शाहनवाज़ 'साहिल'




    Keywords:
    Bekhudi, Gazal, Ghazal, बेखुदी, ग़ज़ल

    26 comments:

    1. "उसने तो एक रोज़ रोके रस्म निभा दी
      हम अपनी सिसकियों को छुपाते रहे हर रोज़"

      जी बहुत बढ़िया....
      सच्ची बात सी लग रही है.....
      चक्कर क्या है....?

      कुंवर जी,

      ReplyDelete
    2. sarwgun sammpann lekhak kii adbhut rachna !!!

      ReplyDelete
    3. अब मेंरी बेखुदी का सलीका तो देखिए
      हम पत्थरों को प्यार सिखाते रहे हर रोज़
      बहुत खूब!
      अच्छी गज़ल कही है.

      ReplyDelete
    4. @ kunwarji's

      जी बहुत बढ़िया....
      सच्ची बात सी लग रही है.....
      चक्कर क्या है....?

      कुंवर जी,




      बस चक्कर की मत पूछिये. :-)

      ReplyDelete
    5. @ paramjitbali-ps2b, सलीम ख़ान, alpana-verma, माधव, अर्चना तिवारी.

      आप सभी का मेरी हौसला अफज़ाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया.

      ReplyDelete
    6. पत्थरों को भी बफा फूल बना देती है / ईमानदारी से किया गया प्रयास हैवान को इन्सान बना सकती है / आपकी सोच को हमेशा मेरा साथ रहेगा /

      ReplyDelete
    7. हम ने जब से तुम्‍हें देखा, तब से देखते हैं रोज
      तुम देखो या न देखो हमारी तरफ हम देखते हैं रोज

      आजकल हम इधर हैं तो इधर की मेल से

      ReplyDelete
    8. "अब मेंरी बेखुदी का सलीका तो देखिए
      हम पत्थरों को प्यार सिखाते रहे हर रोज़"
      वाह वाह

      ReplyDelete
    9. आता है उन्हें हमें सताने का सलीका
      नज़रे मिला के ‘नज़र’ चुराते रहे हर रोज़
      नज़रे चुराने की यह अदा तो सदियों पुरानी है
      बहुत सुन्दर .. अच्छा लगा

      ReplyDelete
    10. @शाहनवाज़ साहबआप एक अच्छे शायर ,लेखक और विचारक है पिछली पोस्ट से भी शानदार पोस्ट।

      ReplyDelete
    11. अब मेंरी बेखुदी का सलीका तो देखिए
      हम पत्थरों को प्यार सिखाते रहे हर रोज़


      उसने तो एक रोज़ रोके रस्म निभा दी
      हम अपनी सिसकियों को छुपाते रहे हर रोज़

      दिल को छू लेने वाली खूबसूरत ग़ज़ल..

      ReplyDelete
    12. बहुत खूब। अच्छी रचना के लिए बधाई।

      ReplyDelete
    13. बहुत सुन्दर !

      ReplyDelete
    14. शाहनवाज़ जी प्रेम से भरी एक सुंदर ग़ज़ल..बढ़िया लगी..आभार

      ReplyDelete
    15. @ Umar Kairanvi ji, honesty project democracy (Jha Ji), माधव जी, sahespuriya ji, राकेश कौशिक जी, M VERMA ji, Ayaz ahmad ji, sangeeta swarup ji, राजकुमार सोनी जी, nilesh mathur ji, विनोद कुमार पांडेय जी, ANWER JAMAL ji.

      मेरी हौसला अफज़ाई के लिए आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया.

      ReplyDelete
    16. बहुत सुन्दर.............

      ReplyDelete
    17. wah wah .........beautiful.....

      ReplyDelete
    18. "...हम पत्थरों को प्यार सिखाते रहे हर रोज़"
      ये तो कुछ अपनी बात सी लगी.

      बहुत बढ़िया शाह..जी

      ReplyDelete
    19. अब मेंरी बेखुदी का सलीका तो देखिए
      हम पत्थरों को प्यार सिखाते रहे हर रोज़

      and.....

      उसने तो एक रोज़ रोके रस्म निभा दी
      हम अपनी सिसकियों को छुपाते रहे हर रोज़

      so nice.......

      ReplyDelete
    20. उसने तो एक रोज़ रोके रस्म निभा दी
      हम अपनी सिसकियों को छुपाते रहे हर रोज़

      दिल को छू लेने वाली खूबसूरत ग़ज़ल..

      ReplyDelete

     
    Copyright (c) 2010. प्रेमरस All Rights Reserved.